सोमवार, 23 मई 2011

द्रोपदी के खत......

       (अगीत छंद में)
१-
माते कुन्ती!
तुम्हारी बहू बन्धन में  थी , 
बंटकर;
माँ, पुत्री, पत्नी , बहू के रिश्तों में |
अब वह स्वतंत्र है, मुक्त है,
बंटने के लिए किश्तों में ||

२-
दुर्योधन !
ठगे रह गए थे तुम , देखकर-
" नारी बीच सारी है , या-
सारी बीच नारी है |"
आज कलियुग में भी सफल नहीं हो पाओगे,
साड़ी हीन नारी देख,
ठगे रह जाओगे ||

३-
हे धर्मराज !
वह बंधन में थी,
समाज व संस्कार के लिए ;
दिन रात खटती थी , गृह कार्य में ;
परिवार, पुरुष पति की सेवा में |
आज वह मुक्त है,
बड़ी कंपनी की सेवा में नियुक्त है,
स्वेच्छा से दिन रात खटती है;
कंपनी के लिए,
अन्य पुरुषों के साथ , या मातहत रहकर;
कंपनी की सेवा में ||

४-
सखा कृष्ण !
द्वापर में एक ही दुर्योधन था ;
द्रौपदी को बचा पाए थे | 
आज  कूचे कूचे , वन-बाग़ , चौराहे-
दुर्योधन हैं;
किस किस को साड़ी पहनाओगे |
सोचती हूँ- इस बार-
अवतार बन कर नहीं आना,
जन जन के मानस में -
संस्कार बन के ,
उतर जाना ||





7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सटीक...वास्तविक और ज्ञानवर्धक पंक्तियाँ.कितना यथार्थ वर्णन है कलयुगी संस्कारों का ..

    सोचती हूँ- इस बार-
    अवतार बन कर नहीं आना,
    जन जन के मानस में -
    संस्कार बन के ,
    उतर जाना ||

    अति सुन्दर

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  2. "जन जन के मानस में - संस्कार बन के, उतर जाना" अवमूल्यितोन्मुखी समय में संस्कारी बनने की प्रेरणा देने वाली कविता।

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  3. धन्यवाद...आशू..व अनाजी...

    धन्यवाद दलसिन्गार जी....आभार..

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  4. डॉ श्याम जी - श्याम और दुर्योधन के उस काल से आज के बिना श्याम वाले दुर्योधन की अच्छी तुलना और निम्न अच्छा सन्देश
    इस बार-
    अवतार बन कर नहीं आना,
    जन जन के मानस में -
    संस्कार बन के ,
    उतर जाना ||

    शुक्ल भ्रमर ५

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  5. आज कूचे कूचे , वन-बाग़ , चौराहे-
    दुर्योधन हैं;
    किस किस को साड़ी पहनाओगे |
    सोचती हूँ- इस बार-
    अवतार बन कर नहीं आना,
    जन जन के मानस में -
    संस्कार बन के ,
    उतर जाना ||

    बहुत ही सटीक...वास्तविक और ज्ञानवर्धक पंक्तियाँ. भाषा-शिल्प और धारा प्रवाह काबिले तारीफ है।इसका अंतिम अंश मन को आंदोलित कर गया।
    बेहतरीन शब्द सामर्थ्य युक्त इस रचना के लिए आभार !!

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  6. धन्यवाद भ्रमर जी व मदन शर्मा जी...

    -- कुसम्स्कार वास्तव में कोई नयी बात नहीं है मानव मन वायवीय तत्व होने के कारण समय समय पर कुसंस्कारों में घिरता रहता है हर युग में..
    --..वस्तुत: स्व-संस्कारों के पतन से ही गर्हित संस्कार समाज में प्रवेश कर जाते हैं, पुरा काल व युग में जिस कुक्रित्य( दुर्योधन द्वारा सिर्फ़ इशारा करना) को भयानक अपराध माना गया; आज के असंस्कार हीन युग में वे सामान्य अपराध व सामान्य व्यवहार माने जाने लगते हैं...इसी से आज के पतन का स्तर जाना जा सकता है ।

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