शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

सत्ता के हस्तांतरण

आप सोच रहे होंगे कि 'सत्ता के हस्तांतरण की संधि' ये क्या है ? आज पढ़िए सत्ता के हस्तांतरण की संधि ( Transfer of Power Agreement ) अर्थात भारत की स्वतंत्रता की संधि. ये इतनी भयावह संधि है कि यदि आप अंग्रेजों द्वारा सन 1615 से लेकर 1857 तक किये गए सभी 565 संधियों अथवा कहें कि षडयंत्र को जोड़ देंगे तो उस से भी अधिक भीषण और भयावह संधि है ये. 14 अगस्त 1947 की रात्रि को जो कुछ हुआ था वो वास्तव में स्वतंत्रता नहीं आई थी अपितु ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का एग्रीमेंट हुआ था पंडित नेहरु और लोर्ड माउन्ट बेटन के बीच में.Transfer of Power और Independence ये दो अलग विषय हैं.स्वतंत्रता और सत्ता का हस्तांतरण ये दो अलग विषय हैं एवं सत्ता का हस्तांतरण कैसे होता है ? आप देखते होंगे क़ि एक पार्टी की सरकार है, वो चुनाव में पराजित जाये, दूसरी पार्टी की सरकार आती है तो दूसरी पार्टी का प्रधानमन्त्री जब शपथ ग्रहण करता है, तो वो शपथ ग्रहण करने के तुरंत पश्चात एक रजिस्टर पर हस्ताक्षर करता है, आप लोगों में से बहुतों ने देखा होगा, तो जिस रजिस्टर पर आने वाला प्रधानमन्त्री हस्ताक्षर करता है, उसी रजिस्टर को 'ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर' की बुक कहते हैं तथा उस पर हस्ताक्षर के पश्चात पुराना प्रधानमन्त्री नए प्रधानमन्त्री को सत्ता सौंप देता है एवं पुराना प्रधानमंत्री निकल कर बाहर चला जाता है.यही नाटक हुआ था 14 अगस्त 1947 की रात्रि को 12 बजे.लार्ड माउन्ट बेटन ने अपनी सत्ता पंडित नेहरु के हाथ में सौंपी थी, और हमने कह दिया कि स्वराज्य आ गया | कैसा स्वराज्य और काहे का स्वराज्य ? अंग्रेजो के लिए स्वराज्य का अर्थ क्या था ? और हमारे लिए स्वराज्य का आशय क्या था ? ये भी समझ लीजिये | अंग्रेज कहते थे क़ि हमने स्वराज्य दिया, अर्थात अंग्रेजों ने अपना राज आपको सौंपा है जिससे कि आप लोग कुछ दिन इसे चला लो जब आवश्यकता पड़ेगी तो हम पुनः आ जायेंगे | ये अंग्रेजो की व्याख्या (interpretation) थी एवं भारतीय लोगों की व्याख्या क्या थी कि हमने स्वराज्य ले लिया तथा इस संधि के अनुसार ही भारत के दो टुकड़े किये गए एवं भारत और पाकिस्तान नामक दो Dominion States बनाये गए हैं | ये Dominion State का अर्थ हिंदी में होता है एक बड़े राज्य के अधीन एक छोटा राज्य, ये शाब्दिक अर्थ है और भारत के सन्दर्भ में इसका वास्तविक अर्थ भी यही है. अंग्रेजी में इसका एक अर्थ है "One of the self-governing nations in the British Commonwealth" तथा दूसरा "Dominance or power through legal authority "| Dominion State और Independent Nation में जमीन आसमान का अंतर होता है | मतलब सीधा है क़ि हम (भारत और पाकिस्तान) आज भी अंग्रेजों के अधीन ही हैं. दुःख तो ये होता है कि उस समय के सत्ता के लालची लोगों ने बिना सोचे समझे अथवा आप कह सकते हैं क़ि पूरी मानसिक जागृत अवस्था में इस संधि को मान लिया अथवा कहें सब कुछ समझ कर ये सब स्वीकार कर लिया एवं ये जो तथाकथित स्वतंत्रता प्राप्त हुई इसका कानून अंग्रेजों के संसद में बनाया गया और इसका नाम रखा गया Indian Independence Act अर्थात भारत के स्वतंत्रता का कानून तथा ऐसे कपट पूर्ण और धूर्तता से यदि इस देश को स्वतंत्रता मिली हो तो वो स्वतंत्रता, स्वतंत्रता है कहाँ ? और इसीलिए गाँधी जी (महात्मा गाँधी) 14 अगस्त 1947 की रात को दिल्ली में नहीं आये थे. वो नोआखाली में थे और कोंग्रेस के बड़े नेता गाँधी जी को बुलाने के लिए गए थेकि बापू चलिए आप.गाँधी जी ने मना कर दिया था. क्यों ? गाँधी जी कहते थे कि मै मानता नहीं कि कोई स्वतंत्रता मिल रही है एवं गाँधी जी ने स्पष्ट कह दिया था कि ये स्वतंत्रता नहीं आ रही है सत्ता के हस्तांतरण का समझौता हो रहा है और गाँधी जी ने नोआखाली से प्रेस विज्ञप्ति जारी की थी | उस प्रेस स्टेटमेंट के पहले ही वाक्य में गाँधी जी ने ये कहाकि मैं भारत के उन करोड़ों लोगों को ये सन्देश देना चाहता हूँ कि ये जो तथाकथित स्वतंत्रता (So Called Freedom) आ रही है ये मै नहीं लाया | ये सत्ता के लालची लोग सत्ता के हस्तांतरण के चक्कर में फंस कर लाये है | मै मानता नहीं कि इस देश में कोई आजादी आई है | और 14 अगस्त 1947 की रात को गाँधी जी दिल्ली में नहीं थे नोआखाली में थे | माने भारत की राजनीति का सबसे बड़ा पुरोधा जिसने हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई की नीव रखी हो वो आदमी 14 अगस्त 1947 की रात को दिल्ली में मौजूद नहीं था | क्यों ? इसका अर्थ है कि गाँधी जी इससे सहमत नहीं थे | (नोआखाली के दंगे तो एक बहाना था वास्तव में बात तो ये सत्ता का हस्तांतरण ही थी) और 14 अगस्त 1947 की रात्रि को जो कुछ हुआ है वो स्वतंत्रता नहीं आई .... ट्रान्सफर ऑफ़ पॉवर का एग्रीमेंट लागू हुआ था पंडित नेहरु और अंग्रेजी सरकार के बीच में. अब शर्तों की बात करता हूँ , सब का उल्लेख करना तो संभव नहीं है परन्तु कुछ महत्वपूर्ण शर्तों की उल्लेख अवश्य करूंगा जिसे एक आम भारतीय जानता है और उनसे परिचित है ...............

०१) इस संधि की शर्तों के अनुसार हम आज भी अंग्रेजों के अधीन ही हैं. वो एक शब्द आप सब सुनते हैं न Commonwealth nations अभी कुछ दिन पहले दिल्ली में Commonwealth Games हुए थे आप सब को याद होगा ही और उसी में बहुत बड़ा घोटाला भी हुआ है | ये Commonwealth का अर्थ होता है 'समान संपत्ति'. किसकी समान सम्पति ? ब्रिटेन की रानी की समान सम्पति. आप जानते हैं ब्रिटेन की महारानी हमारे भारत की भी महारानी है और वो आज भी भारत की नागरिक है और हमारे जैसे 71 देशों की महारानी है वो. Commonwealth में 71 देश हैं और इन सभी 71 देशों में जाने के लिए ब्रिटेन की महारानी को वीजा की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि वो अपने ही देश में जा रही है परन्तु भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को ब्रिटेन में जाने के लिए वीजा की आवश्यकता होती है क्योंकि वो दूसरे देश में जा रहे हैं अर्थात इसका अर्थ निकालें तो ये हुआ कि या तो ब्रिटेन की महारानी भारत की नागरिक है अथवा फिर भारत आज भी ब्रिटेन का उपनिवेश है इसलिए ब्रिटेन की रानी को पासपोर्ट और वीजा की आवश्यकता नहीं होती है यदि दोनों बाते सही हैं तो 15 अगस्त 1947 को हमारी स्वतंत्रता की बात कही जाती है वो मिथ्या है एवं Commonwealth Nations में हमारी एंट्री जो है वो एक Dominion State के रूप में है ना क़ि Independent Nation के रूप में. इस देश में प्रोटोकोल है क़ि जब भी नए राष्ट्रपति बनेंगे तो 21 तोपों की सलामी दी जाएगी उसके अतिरिक्त किसी को भी नहीं. परन्तु ब्रिटेन की महारानी आती है तो उनको भी 21 तोपों की सलामी दी जाती है, इसका क्या अर्थ है? और पिछली बार ब्रिटेन की महारानी यहाँ आयी थी तो एक निमंत्रण पत्र छपा था और उस निमंत्रण पत्र में ऊपर जो नाम था वो ब्रिटेन की महारानी का था और उसके नीचे भारत के राष्ट्रपति का नाम था अर्थात हमारे देश का राष्ट्रपति देश का प्रथम नागरिक नहीं है. ये है राजनितिक दासता, हम कैसे मानें क़ि हम एक स्वतंत्र देश में रह रहे हैं. एक शब्द आप सुनते होंगे High Commission ये अंग्रेजों का एक दास देश दुसरे दास देश के यहाँ खोलता है परन्तु इसे Embassy नहीं कहा जाता. एक मानसिक दासता का उदाहरण भी देखिये ....... हमारे यहाँ के समाचार पत्रों में आप देखते होंगे क़ि कैसे शब्द प्रयोग होते हैं - (ब्रिटेन की महारानी नहीं) महारानी एलिज़ाबेथ, (ब्रिटेन के प्रिन्स चार्ल्स नहीं) प्रिन्स चार्ल्स , (ब्रिटेन की प्रिंसेस नहीं) प्रिंसेस डायना (अब तो वो हैं नहीं), अब तो एक और प्रिन्स विलियम भी आ गए है |

०२) भारत का नाम INDIA रहेगा और पूरे संसार में भारत का नाम इंडिया प्रचारित किया जायेगा तथा सारे सरकारी दस्तावेजों में इसे इंडिया के ही नाम से संबोधित किया जायेगा. हमारे व आपके लिए ये भारत है परन्तु दस्तावेजों में ये इंडिया है | संविधान के प्रस्तावना में ये लिखा गया है "India that is Bharat " जब क़ि होना ये चाहिए था "Bharat that was India " परन्तु दुर्भाग्य इस महान देश का क़ि ये भारत के स्थान पर इंडिया हो गया. ये इसी संधि के शर्तों में से एक है. अब हम भारत के लोग जो इंडिया कहते हैं वो कहीं से भी भारत नहीं है. कुछ दिन पहले मैं एक लेख पढ़ रहा था अब किसका था याद नहीं आ रहा है उसमे उस व्यक्ति ने बताया था कि इंडिया का नाम बदल के भारत कर दिया जाये तो इस देश में आश्चर्यजनक बदलाव आ जायेगा तथा ये विश्व की बड़ी शक्ति बन जायेगा अब उस व्यक्ति की बात में कितनी सत्यता है मैं नहीं जानता, परन्तु भारत जब तक भारत था तब तक तो संसार में सबसे आगे था और ये जब से इंडिया हुआ है तब से पीछे, पीछे और पीछे ही होता जा रहा है |

०३) भारत की संसद में वन्दे मातरम नहीं गाया जायेगा अगले 50 वर्षों तक अर्थात 1997 तक. 1997 में पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने इस समस्या को उठाया तब जाकर पहली बार इस तथाकथित स्वतंत्र देश की संसद में वन्देमातरम गाया गया | 50 वर्षों तक नहीं गाया गया क्योंकि ये भी इसी संधि की शर्तों में से एक है और वन्देमातरम को लेकर मुसलमानों में जो भ्रम फैलाया गया वो अंग्रेजों के दिशानिर्देश पर ही हुआ था. इस गीत में कुछ भी ऐसा आपत्तिजनक नहीं है जो मुसलमानों के मन को ठेस पहुचाये.

०४) इस संधि की शर्तों के अनुसार सुभाष चन्द्र बोस को जीवित अथवा मृत अंग्रेजों के हवाले करना था. यही कारण रहा क़ि सुभाष चन्द्र बोस अपने देश के लिए लापता रहे और कहाँ मर खप गए ये आज तक किसी को ज्ञात नहीं है. समय समय पर कई अफवाहें फैली परन्तु सुभाष चन्द्र बोस का पता नहीं लगा और ना ही किसी ने उनको ढूँढने में रूचि दिखाई. अर्थात भारत का एक महान स्वतंत्रता सेनानी (जो वास्तव में भारत के 'राष्ट्रपिता' थे, गाँधी जी तो 'प्लांट' किये हुए राष्ट्रपिता थे, ये भी देश का दुर्भाग्य ही था) अपने ही देश के लिए बेगाने हो गए. सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिंद फौज बनाई थी ये तो आप सब लोगों को ज्ञात होगा ही परन्तु महत्वपूर्ण बात ये है क़ि ये 1942 में आज़ाद हिंद फ़ौज बनाई गयी थी और उसी समय द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था और सुभाष चन्द्र बोस ने इस काम में जर्मन और जापानी लोगों से सहायता ली थी जो कि अंग्रेजों के शत्रु थे और इस आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजों को सबसे अधिक हानि पहुंचाई थी और जर्मनी के हिटलर और इंग्लैंड के एटली और चर्चिल के व्यक्तिगत विवादों के कारण से ये द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ था और दोनों देश एक दूसरे के कट्टर शत्रु थे. एक शत्रु देश की सहायता से सुभाष चन्द्र बोस ने अंग्रेजों के नाकों चने चबवा दिए थे | एक तो अंग्रेज उधर विश्वयुद्ध में लगे थे दूसरी ओर उन्हंश भारत में भी सुभाष चन्द्र बोस के कारण से कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा था | इसलिए वे सुभाष चन्द्र बोस के शत्रु थे |

०५) इस संधि की शर्तों के अनुसार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, अशफाकुल्लाह, रामप्रसाद विस्मिल जैसे लोग आतंकवादी थे और यही हमारे syllabus में पढाया जाता था बहुत दिनों तक तथा अभी कुछ समय पहले तक ICSE बोर्ड के किताबों में भगत सिंह को आतंकवादी ही बताया जा रहा था, वो तो भला हो कुछ लोगों का जिन्होंने नयायालय में एक केस किया और अदालत ने इसे हटाने का आदेश दिया है (ये समाचार मैंने इन्टरनेट पर ही अभी कुछ दिन पहले देखा था) |

०६) आप भारत के सभी बड़े रेलवे स्टेशन पर एक पुस्तक की दुकान देखते होंगे "व्हीलर बुक स्टोर" वो इसी संधि के नियमों के अनुसार है. ये व्हीलर कौन था ? ये व्हीलर सबसे बड़ा अत्याचारी था. इसने इस देश की हजारों माँ, बहन और बेटियों के साथ बलात्कार किया था. इसने किसानों पर सबसे अधिक गोलियां चलवाई थी. 1857 की क्रांति के पश्चात कानपुर के निकट बिठुर में व्हीलर व नील नामक दो अंग्रजों ने यहाँ के सभी 24 हजार लोगों को हत्या करवा दी थी चाहे वो गोदी का बच्चा हो अथवा मरणासन्न स्थिति में पड़ा कोई वृद्ध. इस व्हीलर के नाम से इंग्लैंड में एक एजेंसी प्रारंभ हुई थी तथा वही भारत में आ गयी. भारत स्वतंत्र हुआ तो ये समाप्त होना चाहिए था, नहीं तो कम से कम नाम में ही परिवर्तन कर देते. परन्तु वो परिवर्तित नहीं किया गया क्योंकि ये इस संधि में है

०७) इस संधि की शर्तों के अनुसार अंग्रेज देश छोड़ के चले जायेंगे परन्तु इस देश में कोई भी नियम चाहे वो किसी क्षेत्र में हो परिवर्तित नहीं जायेगा | इसलिए आज भी इस देश में 34735 नियम वैसे के वैसे चल रहे हैं जैसे अंग्रेजों के समय चलता था | Indian Police Act, Indian Civil Services Act (अब इसका नाम है Indian Civil Administrative Act), Indian Penal Code (Ireland में भी IPC चलता है और Ireland में जहाँ "I" का अर्थ Irish है वहीँ भारत के IPC में "I" का अर्थ Indian है शेष सब के सब कंटेंट एक ही है, कोमा और फुल स्टॉप का भी अंतर नहीं है) Indian Citizenship Act, Indian Advocates Act, Indian Education Act, Land Acquisition Act, Criminal Procedure Act, Indian Evidence Act, Indian Income Tax Act, Indian Forest Act, Indian Agricultural Price Commission Act सब के सब आज भी वैसे ही चल रहे हैं बिना फुल स्टॉप और कोमा बदले हुए |

०८) इस संधि के अनुसार अंग्रेजों द्वारा बनाये गए भवन जैसे के तैसे रखे जायेंगे. नगर का नाम, सड़क का नाम सब के सब वैसे ही रखे जायेंगे. आज देश का संसद भवन, सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट, राष्ट्रपति भवन कितने नाम गिनाऊँ सब के सब वैसे ही खड़े हैं और हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं. लार्ड डलहौजी के नाम पर डलहौजी नगर है , वास्को डी गामा नामक शहर है (वैसे वो पुर्तगाली था ) रिपन रोड, कर्जन रोड, मेयो रोड, बेंटिक रोड, (पटना में) फ्रेजर रोड, बेली रोड, ऐसे हजारों भवन और रोड हैं, सब के सब वैसे के वैसे ही हैं. आप भी अपने नगर में देखिएगा वहां भी कोई न कोई भवन, सड़क उन लोगों के नाम से होंगे | हमारे गुजरात में एक नगर है सूरत, इस सूरत में एक बिल्डिंग है उसका नाम है कूपर विला. अंग्रेजों को जब जहाँगीर ने व्यापार का लाइसेंस दिया था तो सबसे पहले वो सूरत में आये थे और सूरत में उन्होंने इस बिल्डिंग का निर्माण किया था | ये दासता का पहला अध्याय आज तक सूरत शहर में खड़ा है |

०९) हमारे यहाँ शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजों की है क्योंकि ये इस संधि में लिखा है और हास्यप्रद ये है क़ि अंग्रेजों ने हमारे यहाँ एक शिक्षा व्यवस्था दी और अपने यहाँ अलग प्रकार की शिक्षा व्यवस्था रखी है | हमारे यहाँ शिक्षा में डिग्री का महत्व है और उनके यहाँ ठीक विपरीत है. मेरे पास ज्ञान है और मैं कोई अविष्कार करता हूँ तो भारत में पूछा जायेगा क़ि तुम्हारे पास कौन सी डिग्री है ? यदि नहीं है तो मेरे अविष्कार और ज्ञान का कोई महत्व नहीं है. इसके विपरीत उनके यहाँ ऐसा कदापि नहीं है आप यदि कोई अविष्कार करते हैं और आपके पास ज्ञान है परन्तु कोई डिग्री नहीं हैं तो कोई बात नहीं आपको प्रोत्साहित किया जायेगा. नोबेल पुरस्कार पाने के लिए आपको डिग्री की आवश्यकता नहीं होती है. हमारे शिक्षा तंत्र को अंग्रेजों ने डिग्री में बांध दिया था जो आज भी वैसे के वैसा ही चल रहा है. ये जो 30 नंबर का पास मार्क्स आप देखते हैं वो उसी शिक्षा व्यवस्था की देन है, अर्थात आप भले ही 70 नंबर में फेल है परन्तु 30 नंबर लाये है तो पास हैं, ऐसे शिक्षा तंत्र से क्या उत्पन्न हो रहे हैं वो सब आपके सामने ही है और यही अंग्रेज चाहते थे. आप देखते होंगे क़ि हमारे देश में एक विषय चलता है जिसका नाम है अन्थ्रोपोलोग्य.| जानते है इसमें क्या पढाया जाता है ? इसमें दास लोगों क़ि मानसिक अवस्था के बारे में पढाया जाता है और ये अंग्रेजों ने ही इस देश में प्रारंभ किया था और आज स्वतंत्रता के 64 वर्षों के पश्चात भी ये इस देश के विश्वविद्यालयों में पढाया जाता है और यहाँ तक क़ि सिविल सर्विस की परीक्षा में भी ये चलता है |

१०) इस संधि की शर्तों के अनुसार हमारे देश में आयुर्वेद को कोई सहयोग नहीं दिया जायेगा अर्थात हमारे देश की विद्या हमारे ही देश में समाप्त हो जाये ये षडंत्र किया गया. आयुर्वेद को अंग्रेजों ने नष्ट करने का भरसक प्रयास किया था परन्तु ऐसा कर नहीं पाए. संसार में जितने भी पैथी हैं उनमे ये होता है क़ि पहले आप रोगग्रस्त हों तो आपका इलाज होगा परन्तु आयुर्वेद एक ऐसी विद्या है जिसमे कहा जाता है क़ि आप रोगग्रस्त ही मत पड़िए | आपको मैं एक सच्ची घटना बताता हूँ, जोर्ज वाशिंगटन जो क़ि अमेरिका का पहला राष्ट्रपति था वो दिसम्बर 1799 में रोग शैय्या पर पड़ा और जब उसका बुखार ठीक नहीं हो रहा था तो उसके डाक्टरों ने कहा क़ि इनके शरीर का रक्त दूषित हो गया है जब इसको निकाला जायेगा तो ये बुखार ठीक होगा और उसके दोनों हाथों क़ि नसें डाक्टरों ने काट दी और रक्त निकल जाने के कारण से जोर्ज वाशिंगटन का देहांत हो गया. ये घटना 1799 की है और 1780 में एक अंग्रेज भारत आया था और यहाँ से प्लास्टिक सर्जरी सीख कर गया था अर्थात कहने आशय ये है क़ि हमारे देश का चिकित्सा विज्ञान कितना विकसित था उस समय और ये सब आयुर्वेद के कारण से था और उसी आयुर्वेद को आज हमारी सरकार ने हाशिये पर पंहुचा दिया है |

११) इस संधि के अनुसार हमारे देश में गुरुकुल संस्कृति को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जायेगा. हमारे देश के समृद्धि और यहाँ उपस्थित उच्च तकनीक के कारण ये गुरुकुल ही थे और अंग्रेजों ने सबसे पहले इस देश की गुरुकुल परंपरा को ही तोडा था, मैं यहाँ लार्ड मेकॉले की एक उक्ति को यहाँ बताना चाहूँगा जो उसने 2 फ़रवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में दिया था, उसने कहा था "“I have traveled across the length and breadth of India and have not seen one person who is a beggar, who is a thief, such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such caliber, that I do not think we would ever conquer this country, unless we break the very backbone of this nation, which is her spiritual and cultural heritage, and, therefore, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self esteem, their native culture and they will become what we want them, a truly dominated nation”. गुरुकुल का अर्थ हम लोग केवल वेद, पुराण,उपनिषद ही समझते हैं जो कि हमारी मूर्खता है यदि आज की भाषा में कहूं तो ये गुरुकुल जो होते थे वो सब के सब Higher Learning Institute हुआ करते थे.

१२) इस संधि में एक और विशेष बात है, इसमें कहा गया है क़ि यदि हमारे देश के (भारत के) न्यायालय में कोई ऐसा केस आ जाये जिसके निर्णय के लिए कोई कानून न हो इस देश में या उसके निर्णय को लेकर संविधान में भी कोई जानकारी न हो तो साफ़ साफ़ संधि में लिखा गया है क़ि वो सारे केसों का निर्णय अंग्रेजों की न्याय पद्धति के आदर्शों के आधार पर ही होगा, भारतीय न्याय पद्धति का आदर्श उसमें लागू नहीं होगा. कितनी लज्जास्पद स्थिति है ये क़ि हमें अभी भी अंग्रेजों का ही अनुसरण करना होगा.

१३) भारत में स्वतंत्रता की लड़ाई हुई तो वो ईस्ट इंडिया कम्पनी के विरूद्ध था और संधि की गणनानुसार ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत छोड़ कर जाना था और वो चली भी गयी परन्तु इस संधि में ये भी है क़ि ईस्ट इंडिया कम्पनी तो जाएगी भारत से पर शेष 126 विदेशी कंपनियां भारत में रहेंगी और भारत सरकार उनको पूरा संरक्षण देगी और उसी का परिणाम है क़ि ब्रुक बोंड, लिप्टन, बाटा, हिंदुस्तान लीवर (अब हिंदुस्तान यूनिलीवर) जैसी 126 कंपनियां स्वतंत्रता के पश्चात भी इस देश में बची रह गयी और लूटती रही और आज भी वो सब लूट रही है.|

१४) अंग्रेजी का स्थान अंग्रेजों के जाने के बाद वैसे ही रहेगा भारत में जैसा क़ि अभी (1946 में) है और ये भी इसी संधि का भाग है. आप देखिये क़ि हमारे देश में, संसद में, न्यायपालिका में, कार्यालयों में हर कहीं अंग्रेजी, अंग्रेजी और अंग्रेजी है जब क़ि इस देश में 99% लोगों को अंग्रेजी नहीं आती है तथा उन 1% लोगों को देखो क़ि उन्हें मालूम ही नहीं रहता है क़ि उनको पढना क्या है और uno में जा कर भारत के स्थान पर पुर्तगाल का भाषण पढ़ जाते हैं |
१५) आप में से बहुत लोगों को स्मरण होगा क़ि हमारे देश में स्वतंत्रता के 50 साल के पश्चात तक संसद में वार्षिक बजट संध्या को 5:00 बजे पेश किया जाता था | जानते है क्यों ? क्योंकि जब हमारे देश में संध्या के 5:00 बजते हैं तो लन्दन में सुबह के 11:30 बजते हैं और अंग्रेज अपनी सुविधा से उनको सुन सके और उस बजट की समीक्षा कर सके | इतनी दासता में रहा है ये देश. ये भी इसी संधि का भाग है |

१६) 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हुआ तो अंग्रेजों ने भारत में राशन कार्ड का सिस्टम बनाया क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों को अनाज की आवश्यकता थी और वे ये अनाज भारत से चाहते थे. इसीलिए उन्होंने यहाँ जनवितरण प्रणाली और राशन कार्ड प्रारंभ किया. वो प्रणाली आज भी लागू है इस देश में क्योंकि वो इस संधि में है और इस राशन कार्ड को पहचान पत्र के रूप में इस्तेमाल उसी समय प्रारंभ किया गया और वो आज भी जारी है. जिनके पास राशन कार्ड होता था उन्हें ही वोट देने का अधिकार होता था. आज भी देखिये राशन कार्ड ही मुख्य पहचान पत्र है इस देश में.

१७) अंग्रेजों के आने के पहले इस देश में गायों को काटने का कोई कत्लखाना नहीं था. मुगलों के समय तो ये कानून था क़ि कोई यदि गाय को काट दे तो उसका हाथ काट दिया जाता था. अंग्रेज यहाँ आये तो उन्होंने पहली बार कलकत्ता में गाय काटने का कत्लखाना प्रारंभ किया, पहला मदिरालय प्रारंभ किया, पहला वेश्यालय प्रारंभ किया और इस देश में जहाँ जहाँ अंग्रेजों की छावनी हुआ करती थी वहां वहां वेश्याघर बनाये गए, वहां वहां मदिरालय खुला, वहां वहां गाय के काटने के लिए कत्लखाना खुला | ऐसे पूरे देश में 355 छावनियां थी उन अंग्रेजों की. अब ये सब क्यों बनाये गए थे ये आप सब सरलता से समझ सकते हैं | अंग्रेजों के जाने के पश्चात ये सब समाप्त हो जाना चाहिए था परन्तु नहीं हुआ क्योंक़ि ये भी इसी संधि में है.
१८) हमारे देश में जो संसदीय लोकतंत्र है वो वास्तव में अंग्रेजों का वेस्टमिन्स्टर सिस्टम है | ये अंग्रेजो के इंग्लैंड की संसदीय प्रणाली है. ये कहीं से भी न संसदीय है और ना ही लोकतान्त्रिक है. परन्तु इस देश में वही सिस्टम है क्योंकि वो इस संधि में कहा गया है.

ऐसी हजारों शर्तें हैं. मैंने अभी जितना आवश्यक समझा उतना लिखा है. सारांश यही है क़ि इस देश में जो कुछ भी अभी चल रहा है वो सब अंग्रेजों का है हमारा कुछ नहीं है.| अब आप के मन में ये प्रश्न उठ रहा होगा क़ि पहले के राजाओं को तो अंग्रेजी नहीं आती थी तो वो भयावह संधियों (षडयंत्र) के जाल में फँस कर अपना राज्य गवां बैठे परन्तु स्वतंत्रता के समय वाले नेताओं को तो अच्छी अंग्रेजी आती थी फिर वो कैसे इन संधियों के जाल में फँस गए. इसका कारण थोडा भिन्न है क्योंकि स्वतंत्रता के समय वाले नेता अंग्रेजों को अपना आदर्श मानते थे इसलिए उन्होंने जानबूझ कर ये संधि की थी. वो मानते थे क़ि अंग्रेजों से बढियां कोई नहीं है इस संसार में. भारत की स्वतंत्रता के समय के नेताओं के भाषण आप पढेंगे तो आप पाएंगे क़ि वो केवल देखने में ही भारतीय थे पर मन,कर्म और वचन से अंग्रेज ही थे. वे कहते थे क़ि सारा आदर्श है तो अंग्रेजों में, आदर्श शिक्षा व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श अर्थव्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श चिकित्सा व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श कृषि व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श न्याय व्यवस्था है तो अंग्रेजों की, आदर्श कानून व्यवस्था है तो अंग्रेजों की | हमारे स्वतंत्रता के समय के नेताओं को अंग्रेजों से बड़ा आदर्श कोई दिखता नहीं था और वे ताल ठोक ठोक कर कहते थे क़ि हमें भारत अंग्रेजों जैसा बनाना है | अंग्रेज हमें जिस मार्ग पर चलाएंगे उसी मार्ग पर हम चलेंगे. इसीलिए वे ऐसी मूर्खतापूर्ण संधियों में फंसे. यदि आप अभी तक उन्हें देशभक्त मान रहे थे तो ये भ्रम मन से निकाल दीजिये तथा आप यदि समझ रहे हैं क़ि वो abc पार्टी के नेता बढ़िया नहीं थे अथवा हैं तो xyz पार्टी के नेता भी दूध के धुले नहीं हैं. आप किसी को भी बढ़िया मत समझिएगा क्योंक़ि स्वतंत्रता के पश्चात के इन 64 सालों में सब ने चाहे वो राष्ट्रीय पार्टी हो अथवा प्रादेशिक पार्टी, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता का स्वाद तो सबो ने चखा ही है |

तो भारत की दासता जो अंग्रेजों के ज़माने में थी, अंग्रेजों के जाने के 64 वर्ष के पश्चात आज 2011 में जस क़ि तस है क्योंकि हमने संधि कर रखी है और देश को इन भयानक संधियों के मकड़जाल में फंसा रखा है. बहुत दुःख होता है अपने देश के बारे जानकार और सोच कर. मैं ये सब कोई प्रसन्नता से नहीं लिखता हूँ ये मेरे मन की पीड़ा है जो मैं आप लोगों से शेयर करता हूँ |

ये सब बदलना आवश्यक है परन्तु हमें सरकार नहीं व्यवस्था में परिवर्तन करना होगा एवं आप यदि ये सोच रहे हैं क़ि कोई 'अवतार' आएगा और सब बदल देगा तो आप भ्रम में जी रहे हैं. कोई शिवजी, कोई हनुमान जी, कोई राम जी, कोई कृष्ण जी नहीं आने वाले. आपको और हमको ही ये सारे अवतार में आना होगा, हमें ही सड़कों पर उतरना होगा और इस व्यवस्था को जड़ मूल से समाप्त करना होगा | भगवान भी उसी की सहायता करते हैं जो अपनी सहायता स्वयं करता है |
इतने लम्बे लेख को आपने धैर्यपूर्वक पढ़ा इसके लिए आपका कोटि कोटि धन्यवाद् .मेरा उद्देश्य बस इतना ही है कि ज्ञान का प्रवाह होते रहने दीजिये. |

बुधवार, 21 अगस्त 2013

शर्म क्यों हमे ? मगर नहीं आती ......

14वें  विश्व एथलेटिक चैंपियनशिप का आयोजन मास्को, रूस मे 10 से 18 अगस्त 2013 तक किया गया । भारत को पिछले आयोजनों की तरह इस बार भी कोई मेडल नहीं मिल सका है जिसका उसे कोई गम नहीं । इसमे शायद आपको भी कोई आश्चर्य नहीं होगा ।  लेकिन मेडल तालिका देखने के बाद हममे  से  ज्यादातर  के सीने मे बेचैनी  हो सकती  है और हो सकता है गुस्से मे आपकी मुट्ठियाँ भिच जाए क्योंकि पदक तालिका मे ऐसे बहुत से देश मिल जाएंगे जिनकी भारत से अन्यथा कोई तुलना नही हो सकती । रूस का प्रथम, अमेरिका का दूसरे स्थान पर रहना किसी को भी अचंभित नही करेगा  लेकिन जमाइका (6 गोल्ड), कीन्या (5 गोल्ड), इथोपिया (3 गोल्ड), युगांडा (1 गोल्ड), त्रिनीडाड एंड टोबागों (1 गोल्ड), इवोरी कोस्ट(2 सिल्वर) और नाइजीरिया (1 सिल्वर और 1 कांस्य ) को पदक मिलना और भारत का इन छोटे छोटे अभाव ग्रस्त देशों से अत्यधिक पीछे रहना अवसाद पैदा करने वाला है । इथोपिया आज भी अकाल और भुखमरी के लिए जाना जाता है । ये शर्म का विषय है 125 करोड़ की जनसंख्या वाले देश के लिए और देश के नीति नियंताओं के लिए। आज़ादी के 66 वर्ष बाद भी खेलो की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है ? खेलों की राजनीति या राजनीति का खेल ?
 भारत जैसे देशो की शर्म कम करने के लिए  विश्व एथलेटिक चैंपियनशिप के आयाजकों ने इस बार एक नुस्खा निकाला जिसके द्वारा सभी देशों के लिए एक क्रमांक तालिका बनाई गई जिससे ये पता चल सके कि प्रदर्शन के आधार पर  किस देश का कौन सा स्थान रहा । इस नुस्खे के अनुसार किसी प्रतिस्पर्धा मे गोल्ड मेडल को 8 अंक, सिल्वर को 7, कांस्य को 6, चौथे स्थान को 5, पांचवे स्थान को 4, छटवे को 3, सातवें को 2 और आठवें को 1 अंक देने का प्रविधान किया गया। यानी केवल आठवे स्थान तक के लिए अंको का प्रविधान किया गया । इस तरह से प्राप्त कुल अंको के आधार पर सभी देशो की सूची बनाई गई । किन्तु, भारत चूंकि सिर्फ एक प्रतिस्पर्धा मे सातवें स्थान पर रहा था ( अन्य मे आठवें के बहुत बाद रहा) इसलिए उसे केवल 2 अंक प्राप्त हो सके और उसका स्थान 53वां रहा । अमेरिका के 282 अंको के मुक़ाबले विश्व की इस तथाकथित संभावित तीसरी महाशक्ति भारत के केवल 2 अंक ।       
    एक और बात अचंभित करने वाली रही इस प्रतियोगिता का किसी भी समाचार पत्र और किसी भी टी वी चैनल पर कोई खास समाचार नही रहा और इसलिए अपनी दुर्दशा पर न किसी ने आँसू बहाए और न ही किसी को शर्म आने का सुअवसर प्राप्त हुआ । यहाँ  तक कि भारत के एथलेटिक की अधिकृत वेब साइट पर आज तक 13 अगस्त तक का विवरण है और इसमे कहा गया है कि कई खिलाड़ियों ने अपने प्रदर्शन मे काफी सुधार किया है ।
    क्या होगा इस देश का जहां खिलाड़ी खेल  के लिए नहीं सरकारी नौकरी पाने के लिए खेलते है। स्वाभाविक है बिना भाई भतीजावाद के यदि चयन हो जाय तो बहुत बड़ी बात होगी।ये सभी को इस हद तक मालूम है कि कोई भी समझदार व्यक्ति भरसक कोशिश करता है कि बच्चे खेलों पर समय खराब न करें।
     खिलाड़ियो को समुचित और मूलभूत सुविधाए नहीं और उस पर सारे खेल संघों पर राजनैतिक व्यक्तियों का कब्जा । कैसा है राजनीति और खेलों का घाल मेल ..... पता नहीं खेलों मे राजनीति है  या  राजनीति मे खेल। (for more detail please log on to http://lucknowtribune.blogspot.com ; http://mishrasp.blogspot.com http://lucknowcentral.blogspot.com )

                ***********************

     शिव प्रकाश मिश्रा

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

कदम ताल से धरती कांपी- चले हिन्द के वीर

कदम ताल से धरती कांपी
चले हिन्द के वीर
लिए तिरंगा चोटी  चढ़ के
   गरजे ले शमशीर .............
-----------------------------------------------





भारत माँ ले रहीं सलामी
खुशियों का सागर उमड़ा
गले मिले सन्तति सब उनकी
ह्रदय कमल खिल-खिला पड़ा
कदम ताल से धरती कांपी ................
---------------------------------------------------

भारत माँ   हैं जान से प्यारी
संस्कृति अपनी बड़ी दुलारी
प्रेम शान्ति का पाठ पढ़े हम
अनगिन भाषा खिले हैं क्यारी
कदम ताल से धरती कांपी ................
-----------------------------------------------
नई नई नित खोज किये हम
विश्व गुरु बन दुनिया पाठ पढाये
वसुधा सागर गगन भेद के
सूक्ष्म ,तपस्या योग सिखाये
कदम ताल से धरती कांपी ................
---------------------------------------------
हम  स्वतंत्र हैं प्रजातंत्र है
अपना सब का प्यारा राज
यहाँ अहिंसा भाईचारा नीति नियम है
 सभी मनाएं भाँति -भांति हिल-मिल त्यौहार
कदम ताल से धरती कांपी ................
----------------------------------------------------------
शेर हैं हम नरसिंह है हम वीर बड़े हैं
अर्जुन एकलव्य से हैं तो भीष्म अटल हैं
कायर दुश्मन वार कभी पीछे करते हैं
लिए तिरंगा छाती चढ़ते वीर हमारे अजर अमर हैं 
कदम ताल से धरती कांपी ................
------------------------------------------------------------------
प्रेम शान्ति का पाठ पढो हे दुनिया वालों
ना कर तांडव नाश सृष्टि का इसे बचा लो
ज्ञान दंभ पाखण्ड लूट बेचैनी से तुम घिरे पड़े हो
अन्तः झांको ,ज्वालामुखी धधकता 'स्वको अभी बचा लो
दूध की नदिया सोने चिड़िया से गुर सीखो
कल्पवृक्ष भारत अगाध है प्रेम लुटाना लेना सीखो
कदम ताल से धरती कांपी ................
-----------------------------------------------------

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५
प्रतापगढ़ भारत

कुल्लू -हिमाचल

बुधवार, 14 अगस्त 2013

अब तो कानून भी अपना काम नहीं कर पा रहा है


सुनते सुनते यह बात रट  गयी  है कि कानून अपना काम करता है और राजनीतिज्ञ तो हमेशा  जब कभी फंस जाते है तो कहते हैं  कि कानून अपना काम करेगा।  यद्यपि कानून के रास्ते में राजनीतिज्ञों द्वारा ही हजार बाधायें खडी  की जाती रहीं हैं ताकि कानून   सही तरह से अपना काम न कर पा और अगर करे भी तो जितनी देर हो सके उतनी देर की जाय।  इसका नतीजा ये होता है  क़ि साधारण व्यक्ति को अपने लिए न्याय की आशा लगभग धूमिल लागने लगती है   धीरे धीरे लोग न्यायालयों मे लगने वाले अत्यधिक समय के कारण न्याय की गुहार करने से कतराते है । फिर भी सर्वोच्च न्यायालय देश के लिए आज के हालत मे एकमात्र आशा  की किरण है । समान्यतया राजनैतिक दल सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान करते रहे है। न्यायालय के निर्णय बहुत दूरगामी प्रभावों वाले होते हैं । सर्वोच्च न्यायालय की संविधान की रक्षा की ज़िम्मेदारी भी है इसलिए अनेक मौकों पर न्यायालय ने सरकार द्वारा बनाए गए असंवैधानिक क़ानूनों पर रोक भी लगाई है । पिछले कुछ समय से ज़्यादातर राजनैतिक दल संकोच छोड़ सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयो के खिलाफ खुल कर बोलने लगे है और ये प्रथा बढ़ती ही जा रही है ।

 

अब  एक और चलन चल पड़ा है  जिसमे सारे राजनैतिक दल सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध खड़े हो जाते है । ऐसे मामले या तो सारे राजनैतिक दलों को प्रभवित करते है या फिर इनके वोट बैंक को प्रभावित करते है या ये दल अपने विरोध से अपने वोट बैंक का तुष्टीकरण करना चाहते है। स्पष्ट है कि सारी राजनीति वोट बैंक की है । देश के लिए कौन सोचता है ये सिर्फ सोचने की बात रह गई है। संसद मे किसी भी मुद्दे पर साथ न खड़े होने वाले  धुर विरोधी दल ऐसे कुछ मामलों मे “हम साथ साथ हैं” की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। ऐसे मुद्दों पर ये दल संविधान संशोधन के लिए भी तैयार हो जाते है जिसके लिए दो तिहाई बहुमत की जरूरत होती है । ये स्थिति हिंदुस्तान के लिए बिलकुल भी अच्छी नहीं है और लोकतन्त्र के लिए तो कतई नहीं ।

 

भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान मे विशेषज्ञ डाक्टरों मे आरक्षण की व्यवस्था न किए जाने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर राजनैतिक दलों ने बड़ी तीखी  प्रतिक्रिया व्यक्ति की है और सारे दलों ने निर्णय लिया है कि सरकार सर्वोच्च न्यायालय मे पुनरीक्षण याचिका दाखिल करे और इस निर्णय पर पुनर्विचार करे । अगर सर्वोच्च न्यायालय इस पर पुनर्विचार न करे तो संविधान संशोधन के जरिये इसे निरस्त कर दिया जाय ।

 

दूसरा मामला है सूचना के अधिकार से जुड़ा हुआ है । तमाम अनावश्यक आवेदनों और उस पर होने वाले व्यर्थ पत्राचार के वावजूद ये बहुत ही लोकप्रिय और प्रभावी कानून है । इससे सरकारी कामकाज मे पारदर्शिता को बढ़ावा मिला है और लोकसेवक इससे भय खाते है। धीरे धीरे इसकी स्वीकार्यता जनता और संबंधित विभागो मे बहुत  अधिक हो गई है । आज के दिन ये सबसे लोकप्रिय क़ानूनों मे से एक है । किन्तु राजनैतिक दलों पर इसे लागू किए जाने के मुद्दे पर सारे दल एक हो गए है और शीघ्र ही संसद एक कानून पारित करने वाला है जिससे ये कानून राजनैतिक दलों पर लागू नही हो सकेगा ।

 

तीसरा मामला है सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दो साल की सजा पाये व्यक्तियों और जेल से चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया जाना। इस निर्णय के खिलाफ भी सारे दल लामबंद है और इसे भी निरस्त करने की फिराक मे है । क्या 125 करोड़ से अधिक की आबादी वाले इस देश मे संसद के लिए 545 साफ सुथरे व्यक्ति नाही मिल सकते । कितने दुख की बात है कि सारे राजनैतिक दल आम जनता के हित के किसी भी मुद्दे पर एकसाथ नही खड़े होते पर ऐसे मुद्दे पर सब साथ साथ है।

लोकतन्त्र मे सारे दलो का ऐसे मुद्दो पर एक साथ खड़े होना खतरे की घंटी है । सारे राजनैतिक दलों और आम जनता को इस पर गंभीरता पूर्वक  विचार करना चाहिए ।कम से कम इस पर तो जरूर विचार करना चाहिए कि क्या सर्वोच्च न्यायालय का इस तरह के निर्णय देने के पीछे कोई स्वार्थ है ? नहीं । स्वार्थ नही हो सकता और स्वार्थ नही है यह एक साधारण मनुष्य तुरंत समझ जाएगा । निस्वार्थ भाव से किए गए निर्णय कभी गलत नहीं होते । ऐसे निर्णयों का सम्मान किया जाना चाहिए और ऐसे निर्णय लेने वालों का सम्मान किया जाना चाहिए । अगर हिंदुस्तान को बचाना  है तो हमें ऐसा करना सीखना होगा और ऐसा करना होगा । स्वार्थ तो राजनैतिक दलों का हो सकता है राजनैतिक  चस्मे का हो सकता है । राजनैतिक दलों को भी निस्वार्थ भाव से सोचना चाहिए तभी ये देश बच सकेगा और बचाया जा सकेगा ।

***************

शिव प्रकाश मिश्रा  

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

पुंछ के शहीदों को नमन

सरहद ने फिर  जख्म खाये हैं,
देश के पाँच वीर पुंछ से शहीद होकर आए हैं,
“ पाकिस्तान और आतंकवादियों की कायराना हरकत जैसे ”
कई बयान एक साथ आए है,
राजनेताओं से,
भारत मे यह एक चलन है ,
पिछले काफी समय से ,
जिसे हर विदेशी और आतंकवादी आक्रमण के बाद,
राज नेता करते आए है ।
इतिहास गवाह है,
आक्रमणकारी कभी कायर नही कहलाते ।  
कायर तो वो कहलाते हैं
जो आक्रमण का मुंह तोड़ जबाब नहीं दे पाते ।
अगर ये आक्रमण कायरता है,
तो पराक्रम  क्या है ?
पाकिस्तान  का बचाव करना,
खामोश रहना,
या समर्पण करना,
अगर यही सच है,
तो ये पराक्रम की उल्टी पराकाष्ठा है,
और  बेहद गैर जिम्मेदाराना है,
सच तो ये है कि ऐसे हमलों को
कायराना कहना ही कायराना है।
क्या हिंदुस्तान इतना
कमजोर है ?
असहाय है ?
लाचार है ?
पर दुनियाँ को संदेश तो यही गया है
कि यह देश बहुत बदहाल हो गया है ।   
पूरा विश्व जनता है कि
पाक है नापाक आक्रमणकारी,
और भारत है उतना ही कुख्यात वार्ताकारी ।
आखिर वार्ता क्यों हो और किसलिए ?
अगर हो ... तो सिर्फ इसलिए
कि बस .... बहुत हो गया
अब बात नहीं हो सकती
सीमा पर एक भी और हरकत
बर्दाश्त नहीं हो सकती,
अब पराक्रम दिखाने का वक्त आ गया है
दुश्मन को करारा जबाब देने का वक्त आ गया है  
पता नहीं ये वोटो की राजनीति है,
या शान्ति दूत दिखने का जोश,
वे सीमा पर जवानों के सिर भी
कलम कर ले जाते है
हम फिर भी रहते है खामोश,
इससे ज्यादा शर्मनाक स्थिति
और कुछ नहीं हो सकती है,
पर  भारत की राजनीति
सत्ता के लिए कुछ भी कर सकती है,    
एक राजनेता कहते है कि
लोग सेना मे शहीद होने के लिए ही जाते है,
और इसी की तनख्वाह पाते है,
संवेदन शून्य इन नेताओं के बेटे,
न तो सेना मे जाते है,
और न ही शहीद होते है,
वे चाहे देश मे पढे या विदेश मे ,
इंजीनियर हो या डाक्टर ,
बनते हैं सिर्फ वोटो के सौदागर,
और लाशों पर पैर रख कर,  
सत्ता की सीढिया चढ जाते हैं ,
मंत्री हो जाते है शासक बन जाते हैं,
आँसुओ से भीगी शहीदो की दहलीजों को
और अधिक मर्माहत कर जाते हैं ।
गुस्से मे उबलते
और वेवसी की आग मे जलते
शहीदो के इन परिवारो को सांत्वना और
सम्मान चाहिए ,
समूचे देश को इन परिवारों के आँसुओ का
और
इन शहीदो के बलिदानों का
हिसाब चाहिए,
ताकि ये बलिदान व्यर्थ न जाय  
और कभी कमी न हो जाय
देश पर जान देने वालों की,
और शहीदो के सम्मान की
रक्षा करने वालों की ।