शनिवार, 6 दिसंबर 2014

माँ ...........तेरे जाने के बाद






जब मै जन्मा तो मेरे लबो सबसे पहले तेरा नाम आया,
बचपन से जवानी तक हर पल तेरे साथ बिताया.
लेकिन पता नहीं तू कहा चली गयी रुशवा होकर,
की आज तक तेरा कोई पौगाम ना आया.
मै तो सोया हुआ था बेफिक्र होकर,
और जब जागा तो न तेरी ममता, ना तुझे पाया.
मुझसे क्या ऐसी खता हो गयी,
जिसकी सजा दी तूने ऐसी की मै सह ना पाया.
तू छोड़ गयी मुझे यु अकेला,
मै तो तुझे आखरी बार देख भी ना पाया.
तू तो मुझे एक पल भी छोड़ती नहीं थी,
फिर तूने इतना लम्बा अरसा कैसे बिताया.
तू इक बार आ जा मुझसे मिलने,
देखना चाहता हूँ माँ तेरी एक बार काया.

रविवार, 13 जुलाई 2014

रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश- एक सही निर्णय??( FDI IN DEFENCE)

पिछले कुछ दिनों से एक बहस छिड़ी है की रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश(FDI) को जो अनुमती दी गयी है उससे देश का फायदा होगा या नुकसान.हालांकि रक्षा विशेषज्ञ इस पर एकमत दिख रहे हैं.आगे का लेख लिखने से पहले मैं आप स्पष्ट करना चाहता हूँ की स्वयं में मैं स्वदेशी का एक प्रबल समर्थक हूँ और दूसरा की ये लेख नरेंद्र मोदी सरकार की किसी नीति को सही ठहराने के उद्देश्य से नहीं लिख रहा हूँ,इस काम के लिए भारतीय जनता पार्टी के पास काफी प्रबुद्ध प्रवक्ता हैं. वापस मुद्दे पर आते हुए रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश के पक्ष या विपक्ष में तर्क करने से पहले हमे कुछ रक्षा सम्बन्धी जरूरतों और उसके आपूर्ति के प्रबंधन के बारे में समझना होगा. पिछले बीस-पच्चीस साल में रक्षा क्षेत्र में अगर बड़ी आपूर्ति के नाम पर रुसी नेवी द्वारा रिटायर किया हुआ एडमिरल गोर्शकोव नामक युद्धक पोत(जिसे बाद में स्वदेशी नाम आईएनएस विक्रमादित्य दिया गया ) और मुलायम सिंह के रक्षामंत्री रहते हुए सुखोई विमानों की खरीद है, जो पूरी तरह से बिदेशी खरीद थी.
आजादी के बाद ही किसी सरकार ने रक्षा क्षेत्र में शोध और उत्पादन को बढ़ावा नहीं दिया इसी कारण 1962 की हार के बाद से अब तक चीन से हमने आँख मिलाने की हिम्मत नहीं की और अपना प्रमुख प्रतिद्वंदी पाकिस्तान जैसे पिद्दे से देश को मान लिया जो पहले से ही गृहयुद्ध के कारण तबाह है. इधर पच्चीस सालो में सामरिक रूप से चीन ने हमे चारो और से घेरते हुए मुलभूत ढांचे में अत्यंत तीव्र गति से विकास कर लिया है.जिस चौकी तक हमारे सैनिको को पहुचने में 3 दिन लगेगा चीन ने वहां तक रोड बना के 4 घंटे में सप्लाई का प्रबंध कर दिया है. जब चीन से तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो भारत की स्थिति शायद कही नहीं ठहरती है . चाहे हमारे तोप हो मिसाइल हो, जहाज हो या नेवीवारशिप सबमे चीन हमसे काफी आगे है.और यही बात किसी भी रीढ़वाली राष्ट्रवादी सरकार को पीड़ा देगी की वो अपने पडोसी के सामने घुटने टेकते हुए घिसट रहा है क्यूकी संसाधन नहीं उपलब्ध नहीं  हैं. विश्व की सबसे बहादुर सेना हताश निराश है क्यूकी उसके पास लड़ने के लिए बंदूके नहीं हैं.यह बात पूर्व सेना प्रमुख के तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखे पत्र से स्पष्ट है. अब यदि वर्तमान सरकार स्वदेशी फैक्ट्रियां डाल कर विमान युद्धपोत और अन्य रक्षा उपकरण बनाने लगे तो कम से कम यह 25 साल की परियोजना होगी. इस समय अंतराल की वास्तविकता का अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं की लगभग  बीस साल से स्वदेशी विमान “तेजस” का निर्माण जारी है और आज तक वह विमान वायुसेना के मानको को पूरा नहीं कर पाया है जिससे उसकी सेवाओं का उपयोग भारतीय वायुसेना कर सके. इसमें 6 साल आदरणीय वाजपेयी जी के कार्यकाल के भी है जिनकी सरकार विकास सम्बन्धी फैसले में अव्वल थी.उस पर भी ध्यान देने योग्य बात ये है की इस विमान का इंजन बिदेशी है जिस पर हिन्दुस्थान का ठप्पा लगाया जायेगा .तो आप कल्पना कीजिये बिना इंजन के सिर्फ नियंत्रण प्रणाली और ढांचा पिछले बीस साल से बन रहा है सफल नहीं हुआ अगर इस आधार पर चीन से आँख मिलाने की परिकल्पना करे तो शायद पूरा पूर्वोत्तर भारत चीन के हवाले करना पड़ेगा और हमारी आँख फिर भी नीचे रहेगी.
इससे इतर जो बड़ी समस्या है की काल्पनिक रूप से यदि इतना बड़ा तंत्र खड़ा कर लिया जाये तो उसके लिए पैसे कहाँ से आयेंगे.जाहिर है इस पर ये कहना की कालेधन को स्विट्जरलैंड से माँगा कर रक्षा का आधारभूत ढांचा तैयार होगा एक कोरी कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं हैं. काल्पनिक रूप से ये भी मान ले की वित्त का प्रबंध हो गया तो क्या हमारे पास उस उच्च स्तर की तकनीकी और प्रशिक्षित प्रतिभाएं हैं . एक रक्षा विशेषज्ञ से संवाद के दौरान उन्होंने एक बहुत मौलिक प्रश्न उठाया की यदि भारत ने तेजस जैसे विमान की एक फैक्ट्री विकसित भी ले तो सिर्फ 100 विमानों के लिए विमान निर्माण का ढांचा नहीं बनाया जा सकता उसके बाद उसे ग्राहक कहाँ से मिलेंगे क्यूकी बिना शोध के हमारी तकनीकी 30 साल पुरानी होगी और रूस और फ़्रांस जैसे बड़े उत्पादक उससे कम दाम में उच्च तकनीकी उपलब्ध करा देंगे.
नासा या अन्य देशों में हमारी प्रतिभाएं सफल है क्यूकी वहां का शोध का आधारभूत ढांचा अत्याधुनिक एवं विश्वस्तरीय है.वहां सिर्फ हमारी प्रतिभाओं को मूल्य संवर्धन (VALUE ADDITION) करना है,जबकि इसके उलट भारत में पूर्ववर्ती सरकार की उपेक्षा के कारण शोध(RESEARCH) का आधारभूत ढांचा न के बराबर है. हमारी समस्या यही है की हम खीच खांच के घरेलू उत्पादन के बजट का जुगाड़ कर लें तो शोध के नाम पर “ऊंट के मुह में जीरा”. जबकि शोध और उत्पादन दोनों दो स्तर हैं एक विश्वस्तरीय उत्पाद के लिए. और उसमे भी सबसे प्रमुख है भारत में शोध क्षेत्र में काम न होना.सर्वप्रथम सरकार प्रथम स्तर पर कार्य कर ले फिर दूसरे स्तर उत्पादन पर कुछ सोचा जा सकता है..तो क्या जब तक ये सब स्तर हम प्राप्त न हो हम कोई भी उत्पाद बिदेश से न मंगाए या बिदेश पर निर्भर न रहे और अपने सैनिको और जनता को कांग्रेस के शासन काल की तरह मरने के लिए छोड़ दें?मेरी समझ से कोई भी ये नहीं चाहेगा की संसाधन की कमी से हमारे वीर सैनिक और निर्दोष जनता मारी जाये तो फिलहाल एक ही विकल्प बचता है बिदेश से रक्षा उपकरणों की खरीद और यही हम न्यूनाधिक मात्रा में कर भी रहे हैं. शोध और निवेश के अलावा रक्षा मोर्चे पर बिदेशों से रक्षा उपकरण मंगाने एवं FDI को हरी झंडी देने के पीछे दो और प्रमुख कारण हैं जिसे ज्यादातर लोग नजअंदाज कर रहे हैं प्रथम है तकनीकी स्थानान्तरण(Techonology Transfer) तो दूसरा है उपकरणों के मरम्मत सम्बन्धी कलपुर्जे (Spare Part) के व्यापार का खेल.
हम जितने भी देशों से रक्षा उपकरण आयात करते हैं उसमे से रूस को छोड़कर कोई भी देश तकनीकी  स्थानान्तरण(Techonology Transfer) नहीं करता है. मतलब हमने कोई उपकरण ख़रीदा तो एक तकनीकी दल उसके प्रचालन की रखरखाव ट्रेनिंग ले कर आएगा और कंपनी ने अपना पल्ला छुड़ा लिया. अब यदि वही कंपनी यहाँ फैक्ट्री बनाती है तो हमारी सरकार का उसपर पूर्ण नियंत्रण होगा क्यूकी उसका निवेश हिन्दुस्थान में लगा होगा तो हमारी रक्षा व्यवस्था के साथ सहयोग को अस्वीकार करना आसान नहीं होगा.दूसरी और ऐसा संभव नहीं है की फैक्ट्री की सम्पूर्ण जनशक्ति (मैनपॉवर) बिदेश से आये.यहाँ फैक्ट्री होगी तो उस तकनीकी में हजारो भारतीय भी दक्ष होंगे ज्ञातव्य हो ये तेल साबुन बनाने की तकनीकी नहीं होगी,ये तकनीकी रक्षा उपकरणों से सम्बंधित होगी. जो आगे हमारे व्यवस्था के स्वदेशीकरण में लाभदायक होगा. हमारी सरकार का इस बात पर भी पूर्ण नियंत्रण होगा की यहाँ से सस्ती जनशक्ति और संसाधन लेकर माल यहाँ बना कर अन्य देशों में न बेचा जाये मतलब हिन्दुस्थान में लगी फैक्ट्री का अधिकांश उत्पादन यही के लिए होगा.शोध कार्य वो अन्य इकाईयों(subsideries)के माध्यम से कर के यहाँ उपयोग कर सकते है.
रक्षा उपकरणों के मरम्मत सम्बन्धी कलपुर्जों का एक बहुत बड़ा बाजार सक्रीय है जो एक बार उपकरण खरीद लेने के बाद कलपुर्जों के नाम पर मनमाने ढंग से मोटी रकम हिन्दुस्थान से वसूल करता है.जैसे सुखोई विमान हमने रूस से लिया उसका नोज संयुक्त रूस के किसी अन्य भाग में बना इंजन कही और ढांचा कहीं और बाकी उपकरण कही और. आज भारतीय वायु सेना के सामने सबसे बड़ी समस्या ये है की रूस के विघटन के बाद उसे अलग अलग देशों से स्पेयर पार्ट खरीदने पड़ते हैं.कुछ देशों ने फैक्ट्रियां बंद कर दी अब किसी भी कीमत पर वो कल पुर्जे नहीं मिल सकते और सुखोई विमान उड़न ताबूत बन चुके हैं.यदि ये स्पेयर पार्ट हिन्दुस्थान में उपलब्ध होते तो कई हजार करोड का फायदा एवं कई विमानों की आयु बढ़ सकती थी. यही हाल अन्य रक्षा उपकरणों में भी है.
एक अन्य महत्त्वपूर्ण बिंदु ये है की यदि सामान यहाँ बना तो बिदेशी मुद्रा भंडार बचेगा जो वर्तमान अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है और उतनी ही पूंजी में हमें ज्यादा उपकरण मुहैया होंगे जिनके उत्पादन प्रक्रिया पर भारत सरकार का पूरा नियंत्रण अपने विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से होगा.इसके अलवा कुछ संशय इस बात पर हैं की हमारा पूरा रक्षा तंत्र बिदेशियों के हाथ में चला जायेगा तो यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है विदेशी निवेश कभी भी कोर सेक्टर जिससे देश की सुरक्षा में समस्या आ सकती है उसमे नहीं होता है. अभी फिलहाल में तो ये पेरिफेरल सेक्टर में है. जैसे नाईट विजन उपकरण आदि. कोई भी उपकरण खरीदने के बाद भारतीय रक्षा तंत्र अपनी आवश्यकता के अनुसार उसमे परिवर्तन करता है जिससे किसी अन्य देश को जो उसी उत्पादक कंपनी से वही उपकरण लेता है,उससे हमारे उपकरण के कोर आपरेशन की गोपनीयता कुछ स्तर तक बनायीं जा सके.



जहाँ तक राजीव भाई के विचारों के समर्थन करने वाले बंधुओं का सवाल है राजीव भाई ने स्वयं अपने व्याख्यानों में शून्य तकनीकी उत्पादों जैसे तेल मसाला साबुन आदि में बिदेशी निवेश का विरोध किया है . उन्होंने स्वयं अपने व्याख्यानों में कहा है की कोई भी बिदेशी कंपनी भारत में मिसाइल या कोई रक्षा उपकरण बनाने की फैक्ट्री क्यों नहीं लगाती?? यदि आज उनकी बात को आंशिक रूप से सत्य किया जा रहा है तो इसका निषेध क्यों?? स्वदेशीकरण धीमी गति से चलने वाली लम्बी प्रक्रिया है. जो पांच साल में नहीं हो सकती हाँ मगर वर्तमान सरकार को सामानांतर रूप से स्वदेशी तकनीकी पर शोध को पर्याप्त अवसर देना होगा तथा ऐसे व्यवस्था की नींव रखनी होगी जिससे आने वाले दशक में हिन्दुस्थान कम से कम अपनी रक्षा जरूरतों का कुछ भाग में स्वावलंबी हो सके..

आशुतोष की कलम से 
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मंगलवार, 17 जून 2014

अटूट रिश्ते ..... टूटते से ....!

मन भटकता है,

रह रह कर ,

कभी यहाँ कभी वहां,

पता नहीं कब ? कब ? कहाँ ? कहाँ ?

बचपन ...और अपने गाँव की नदी के  किनारे..,

घूमते थे जहाँ शाम सबेरे,

और दोस्तों के साथ खेलते थे,

प्यास लगने पर

नदी का पानी पीते थे,

कभी शेर बनकर,

कभी मछली बनकर,  

तो कभी चुल्लू  लगा कर,

नहाते थे दिन में कई कई बार,

छूने, पकड़ने और छिपने के

कितने ही खेल खेलते थे,

नदी के पानी में,

और लोटते थे,

नदी की गोद में फ़ैली बालू में, 

नंगे पाँव चलते थे,

छप छप करते थे,

उथले पानी में,

कितने पिरामिड खड़े किये

बालू में

और कितनी ही आकृतियाँ बनाई,

कितने ही चींटी चींटों को कागज की नाव पर

नदी की सैर कराई,

कितने ही जल युद्ध होते थे,

पानी के थपेड़ों से,

एक दूसरे से,

सरोबोर होते थे हम सभी,

तैरने की  प्रतियोगिताएं भी होती थी कभी कभी,

जीतते थे,

हारते थे,     

पर कभी नहीं थकते थे,

कितने ही खजाने ढूँढ़ते थे ,

हम सब मिलकर,

गोताखोर बनकर , 

डुबकी लगा लगा कर,

सीपी, शंख,रंगीन सुंदर पत्थरों के टुकड़े,

और कुछ पुराने सिक्के मुड़े तुड़े,

आज भी मेरे पास अमानत है,

जो नदी से मेरे बचपन के रिश्ते की विरासत है,

ये हर चीज करती है खुद बयानी,

उस नदी की अनोखी, अनकही कहानी,  

जब बाढ़ आती थी,

लगता था जैसे

हम समुद्र के किनारे बस जाते थे

पानी की हिंसक लहरे,

और आर्तनाद करती भवरें,

दिल में अनगिनत उतार चढाव और कौतूहल भर जाते थे,  

हर रोज हम बाढ़ नापते थे,

और सरकंडे गाड़ कर बाढ़ रोकते थे,

हम इसमें सफल होते थे,

ऐसा मान कर बहुत खुश होते थे,   

पुल नहीं था,

पर गाँव में  किसी को इसका गम नहीं था,

निकसन काका की नाव शायद इसीलिये बनी थी,

जो जरूरतों  की अकेली रोशनी थी,

पैदल हो या साईकिल,

बकरी हो या भेड़

सबको इसकी जरूरत थी,

एक अटूट रिश्ते  से,

हम सब जुड़े थे,

अपने गाँव की इस सुंदर नदी से,

कई दशक बाद आज मै लौटा हूँ

उसी नदी के किनारे,

और ढूड रहा हूँ,

अपने अतीत के रिश्ते की वह कड़ी,

जिसकी नीव थी कभी यहीं पड़ी,

कभी सोचा भी न था कि

समय की सुई इतनी घूम जायेगी,

कि इस रिश्ते की जान पर बन आयेगी,     

मेरे बचपन की ये दोस्त और मेरी ये रिश्तेदार,

कृषकाय हो रही है, 

मलिन हो बीमार हो रही है,  

और सूख रही है

जगह जगह से,

शायद आख़िरी कड़ी भी टूट रही है

इस रिश्ते की

इससे....

हम सबसे .....!

********  

--शिव प्रकाश मिश्रा

  हम हिन्दुस्तानी

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

मैंने भी प्यार किया था

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जी हां हमको भी प्यार हुआ था,
उम्र 15  साल।
कद छोटा, रंग काला और थोड़ा मोटा,
जब पड़ा था इश्क का अकाल।।
जब फिल्मो के हीरो अमिताभ,
और विलेन था सकाल।
और जब मै नाई से,
कटवा रहा था अपने बाल।।
जब मै बाल कटवा रहा था,
तभी वहा बवाल।
नाई थोड़ा घबराया,
बाल की जगह कट गया मेरा गाल।।
मै भी जिज्ञासा वस बाहर आया,
तो देखा नया बवाल।
दो प्रेमी मित्र मना रहे थे,
नया-नया साल।।
दोनों ने एक दुसरे को कसके पकड़ा था,
तब मुझे आया एक ख्याल।
लोगो ने किया था,
उनको देखकर लोगो ने किया था बवाल।।
लेकिन उस बवाल को देखकर,
मेरे मन में आया प्यार का ख्याल।
मैंने भी प्यार करने की ठानी,
लेकिन मेरे मन में आया एक सवाल।।
मैंने अपने स्कूल में ही,
कर दिया बवाल।
स्कुल में देखा एक नया माल।।
मैंने फ्लट किया,
बड़े सुन्दर है आपके बाल ।
लगते है हमेशा,
संसद में लटके हुए लोकपाल।।
मैंने आगे झूठ बोला,
आपके सुन्दर और फुले हुए गाल।
कराते है मेरे मन में हमेशा,
कश्मीर जैसा बवाल।।
मैंने किया प्रेम का इजहार,
तो उसने कर दिए मेरे गाल लाल।
फिर वहा खड़े लोगो ने पिटा,
फिर उसने पूछा एक सवाल।।
वैसे तुमने किया क्या था,
जो उसने किया बवाल।
जो इन बेरहम लोगो ने कर दिया,
तेरा यह बुरा हाल।।
मैंने उन्हें बताया,
करना चाहा प्यार कर दिया यह हाल।
अरे अभी तेरी उम्र ही क्या है,
खुद को पागल बनने से  संभाल।।

सोमवार, 14 अप्रैल 2014

युवाओं का गैजेट प्रेम

सुबह हो या शाम,
हर जगह दीखता है .
हर गली, नुक्कड़ और चौराहो,
पर बिकता है .

कुछ छोटा सा या बड़ा ,
आकर्षित करता हुआ.
सभी का मनोरंजन,
करता है.

हम (युवाओं) के जीवन,
के अंग इस प्रकार है.
एक छोटा परन्तु अद्भुत,
वस्तु मोबाईल,
जो आक्सीजन का कार्य करता है.

दिन में कई बार,
फिल्मी गीतो के साथ बजता है.
अगर थोड़ी देर के लिए भी,
गम हो जाए तो,
ह्रदय बहुत तेजी से धड़कता है.

दूसरे प्रमुख अंग को हम,
कंप्यूटर कहते है.
यह हमारे जीवन में,
रक्त का कार्य करता है.

सभी बच्चो की जिज्ञासा,
का हल इंटरनेट करता है.
और दैनिक जीवन में,
विटामिन और प्रोटीन का कार्य करता है.

बच्चो में बुक नामक,
रोग मिले या न मिले,
फेसबुक नामक,
डायबटीज जरूर मिलता है.

जो पहले जिज्ञासा,
से शुरू होकर बढती जाती है.
और यह निरंतर बढता जाता है.

उपर्युक्त बताये गए सभी,
तत्व महत्वपूर्ण है.
सवस्थ जीवन के लिए इनका,
नियमित और सही मात्र में,
सेवन जरूरी होता है. 
 
http://hindikavitamanch.blogspot.in/

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

आज का प्रेम

http://hindikavitamanch.blogspot.in/मनुष्य (इस संसार का सबसे अद्भुत प्राणी),
जिसका प्रेम प्रत्येक छण !
कलेंडर से जल्दी बदलता है,
और समय से भी तेज चलता है !!

औरत (संसार की सबसे रहस्यमय प्रजाती),
को देखते ही प्रेम में पड़ जाता है !
और फिर जनसंख्या और महंगाई,
से भी तेज बढता जाता है !!

पहले ही दिन अट्रैक्सन होता है,
फिर कनेक्सन होता है !
दूसरे ही दिन कन्वेंसन होता है,
और अंत में इस प्रेम नामक दवा,
की एक्सपायरी डेट ख़त्म हो जाती है !!

और फिर मनुष्य (मोबाईल फोन),
से औरत नामक सीम निकाल दी जाती है !
और फिर सस्ती, टिकाऊ  और सुन्दर ऑफर,
वाले सिम (महिला) की तलाश शुरू हो जाती है !!

और कभी - कभी तो यह,
'शादी' नामक ज्वार तक पहुँच जाती है !
और फिर 'तलाक' नामक भाटा पर,
आकर ख़त्म होती है !!

सोमवार, 31 मार्च 2014

भारतीय नव वर्ष(विक्रम संवत २०७१)की शुभकामनायें

मित्रों कल(31 मार्च २०१४) का दिन क्या आप के लिए कोई महत्त्व का दिन है या रोज की तरह आप इसे एक सामान्य दिन की तरह दफ्तर में उबासी लेती चाय की चुस्कियों, बार में चिकन टिक्का और बियर की ठंढी गिलासों या शाम को सब्जी लाने में व्यतीत करने वाले है..इससे पहले की कुछ और लिखना शुरू करू आप को ३ माह पहले ले जाना चाहूँगा जब 31दिसंबर २०१३ और इसके लगभग २०-२५ दिन पहले से हमने आप ने नव वर्ष की रट लगनी शुरू कर दी और 1 जनवरी की कडकडाती हुई ठंढ में जब घरो से निकलना संभव नहीं होता है सभी इष्ट मित्रों को नए साल  की बधाइयाँ प्रेषित की. मगर मित्रों क्या वो नव वर्ष आप का अपना था?क्या उसमे कोई नवीनता थी? या अब भी हम अंग्रेजो और अंग्रेजी मानसिकता की गुलामी में बाहर नहीं निकल पाए हैं?? हमारी प्राचीनतम और वैज्ञानिक रूप से सनातन प्रणाली में नव वर्ष भारतीय पंचांग के अनुसार चैत्र माह के शुक्ल प्रतिपदा के प्रथम दिन भारतीय नव वर्ष मनाया जाता है..

हमारी वर्तमान मान्यताएं और आज का भारतीय : वर्तमान परिवेश में पश्चिम का अन्धानुकरण करते हुए हम ३१ दिसम्बर की रात को कडकडाती हुए ठण्ड में नव वर्ष काँप काँप कर मनाते है..पटाके फोड़ते है,मिठाइयाँ बाटते हैं और शुभकामना सन्देश भेजते है..कहीं कहीं मास मदिरा तामसी भोजन का प्रावधान भी होता है..अश्लील नृत्य इत्यादि इत्यादि फिर भी हमें ये युक्तिसंगत लगता है..विश्व में हजारों सभ्यताएं हुई हैं और हजारों पद्धतियाँ है सबकी अपनी अपनी. शायद ३१ दिसम्बर की रात या १ जनवरी को नव वर्ष मनाने का कोई वैज्ञानिक आधार हो,मगर मैंने आज तक नहीं देखा. फिर भी ये यूरोप और अमरीका की अपनी पद्धति हैमगर हमारी दुम हिलाने की आदत गयी नहीं आज तकशुरू कर देते है पटाके फोड़ना..विडंबना ये है की क्या कभी आप ने किसी यूरोपियनया या अमेरिकी को भारतीय नव वर्ष मानते देखा है..मैं ये कहना जरुरी समझता हूँ की १ जनवरी को कुछ भी वैज्ञानिक दृष्टि से नवीन नहीं होता मगर फिर भी नव वर्ष होता है..
भारतीय नव वर्ष का धार्मिक एवं सांकृतिक आधार:  
1  ऐसी मान्यता है की सतयुग का प्रथम दिन इसी दिन शुरू हुआ था..
2 एक अन्य मान्यता के अनुसार ब्रम्हा ने इसी दिन सृष्टि का सृजन शुरू किया था..
3 भारत के कई हिस्सों में गुडी पड़वा या उगादी
  पर्व मनाया जाता है.इस दिन घरों को हरे पत्तों से सजाया जाता है और हरियाली चारो और दृष्टीगोचर होती है.
4  मर्यादा पुरूषोत्‍तम श्रीराम का राज्‍याभिषेक आज के ही दिन हुआ
5 मॉं दुर्गा की उपासना की नवरात्र व्रत का प्रारम्‍भ आज के दिन से होता है. हम प्रतिपदा से प्रारंभ कर नौ दिन में(प्रथम नवरात्री) छह मास के लिए शक्ति संचय करते हैंफिर अश्विन मास की नवरात्रि में शेष छह मास के लिए शक्ति संचय करते हैं।
6 महाराज विक्रमादित्य ने आज के ही दिन  राष्ट्र को सुसंगठित कर शकों की शक्ति का उन्मूलन कर देश से भगा दिया और उनके ही मूल स्थान अरब में विजयश्री प्राप्त की। साथ ही यवनहूणतुषारपारसिक तथा कंबोज देशों पर अपनी विजय ध्वजा फहराई।
इस वर्ष पश्चिमी कलेंडर के अनुसार ये वर्ष31 मार्च २०१4 को शुरू होगा..
मित्रों मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा पद्धति की मानसिक गुलामी पीढ़ियों से हमारे ऊपर हावी है अतः ऐसा संभव है हमारे आपके या मैकाले के मानस पुत्रों के विचार में भारतीय नव वर्ष का सांस्कृतिक और धार्मिक आधार कपोल कल्पित हो तो उस समस्या के समाधान के लिए मैंने भारतीय नव वर्ष के सन्दर्भ में कुछ वैज्ञानिक और प्राकृतिक तथ्य संकलित किये हैं जो अपेक्षाकृत आसानी से दृष्टिगोचर एवं वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित है ..
भारतीय नव वर्ष का प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक आधार :  
1 भारतीय नव वर्ष के आगमन का सन्देश प्रकृति का कण कण देता है पुरातन का संपन और नवीन का सृजन प्रकृति का हर एक कोना कहता है. वृक्ष पेड़ पौधे अपनी पुरानि पत्तियों,छालो से मुक्ति पा के नवीन रूप से पल्लवित होते हैं
2 महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने प्रतिपादित किया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से दिन-मास-वर्ष और युगादि का आरंभ हुआ है। युगों में प्रथम सतयुग का आरंभ भी इसी दिन से हुआ है। कल्पादि-सृष्ट्यादि-युगादि आरंभ को लेकर इस दिवस के साथ अति प्राचीनता जुड़ी हुई है। सृष्टि की रचना को लेकर इसी दिवस से गणना की गई हैलिखा है-
चैत्र-मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेहनि ।
शुक्लपक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति ।।

भास्कराचार्य ने इसी दिन को आधार रखते हुए गणना कर पंचांग की रचना की जो की विभिन्न ग्रहों,चंद्रमा  एवं सूर्य की गति एवं दिशाओं का उतना ही प्रमाणिकता से निर्धारण करता है जितना आधुनिक सैटलाईट..
3 हमारे हिन्दुस्थान में सभी वित्तीय संस्थानों का नव वर्ष अप्रैल से प्रारम्भ होता है .यह समय दो ऋतुओं का संधिकाल है। इसमें रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं. ठंढ की समाप्ति और ग्रीष्म का प्रारंभ अत्यंत ही मधुर और आनंददायक अनुभव देता है.
4 इसी समय बर्फ पिघलने लगती है। आमों पर बौर आने लगता है। पेड़ों पर नवीन पत्तियों और कोपलों का आगमन होता है..पतझड़ ख़तम होता है और बसंत की शुरुवात होती है. प्रकृति में हर जगह हरियाली छाई होती है प्रकृति का नवश्रृंगार होता है.
5 आकाश व अंतरिक्ष हमारे लिए एक विशाल प्रयोगशाला है। ग्रह-नक्षत्र-तारों आदि के दर्शन से उनकी गति-स्थिति
उदय-अस्त से हमें अपना पंचांग स्पष्ट आकाश में दिखाई देता है। अमावस-पूनम को हम स्पष्ट समझ जाते हैं। पूर्णचंद्र चित्रा नक्षत्र के निकट हो तो चैत्री पूर्णिमाविशाखा के निकट वैशाखी पूर्णिमाज्येष्ठा के निकट से ज्येष्ठ की पूर्णिमा इत्यादि आकाश को पढ़ते हुए जब हम पूर्ण चंद्रमा को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के निकट देखेंगे तो यह फाल्गुन मास की पूर्णिमा है और यहां से नवीन वर्ष आरंभ होने को १५ दिवस शेष है। इन १५ दिनों के पश्चात जिस दिन पूर्ण चंद्र अस्त हो तो अमावस (चैत्र मास की) स्पष्ट हो जाती है और अमांत के पश्चात प्रथम सूर्योदय ही हमारे नए वर्ष का उदय है।इस प्रकार हम बिना पंचांग और केलेंडर के प्रकृति और आकाश को पढ़कर नवीन वर्ष को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा दिव्य नववर्ष दुर्लभ है।
ये भारतीय नव वर्ष की वैज्ञानिक प्रमाणिकता ही है जो किसी के नाम का मोहताज नहीं बल्कि वैज्ञानिक गणनाओं से शुरू होता है जबकि सभी नव वर्ष बिना किसी वैज्ञानिकता के किसी धर्मगुरु या प्रवर्तक के जन्म से प्रारंभ कर दिए गए.
7 स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात नवम्बर 1952 में वैज्ञानिको और औद्योगिक परिषद के द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गयी । समिति के 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रम संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की । किन्तु
तत्कालिन प्रधानमंत्री पं. नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन केलेण्ड़र को ही राष्ट्रीय केलेण्ड़र के रूप में स्वीकार लिया गया ।आप ही सोचे क्या जनवरी के माह में ये नवीनता होती है नहीं तो फिर नव वर्ष कैसा..शायद किसी और देश में जनवरी में बसंत आता हो तो वो जनवरी में नव वर्ष हम क्यूँ मनाये???
वर्तमान में एक कुप्रथा चली है  मुर्ख दिवस मानाने की वो भी भारतीय नव वर्ष के शुरुवात में और बौधिक
 गुलाम लोग  सबको अप्रैल फूल बनाते हैं.अर्थात अंग्रेजो और पश्चिम ने ये सुनिश्चित कर दिया है तुम मुर्ख हो और खुद के भाई बहनों को नव वर्ष में शुभकामना सन्देश भेजने की बजाय मुर्ख कहो और मुर्ख बनाओ और मुर्ख रहो..इसी का परिणाम है की आजादी के वर्षों बाद भी हमारी बौधिक गुलामी नहीं गयी जिस नव वर्ष को हमे पूजा पाठ और खुशहाली से मनाना चाहिए उस दिन हम एक दुसरे की मुर्खता का उपहास करते हैं..
हम चाहे जितने भी तथाकथित गुलाम यूरोपियन माडर्न हो जाएँ मगर बच्चे के जन्म से लेकर,घर खरीदना,सामान खरीदना,शादी विवाह,मृत्यु या जीवन के हर अवसर पर भारतीय पंचांग पर आश्रित है जो भारतीय नव वर्ष पर आधारित है मगर उसी दिन हम अपने द्वारा अनुसरित की जा रही मान्यताओं का अप्रेल फूल( यूरोपियन इसे फूल इंडियन ही कहते होंगे )उपहास उड़ाते हैं ये कितनी बड़ी विडम्बना है..
चलिए आप सभी को नव वर्ष की ढेरों शुभकामनायें आशा करूँगा की ये नव वर्ष आप सभी के जीवन में अपार हर्ष और खुशहाली ले कर आये..
भारतीय पंचांग महीनो के नाम और पश्चिम में कैलेंडर में उस माह का अनुवाद

चैत्र--- मार्च-अप्रैल,               वैशाख--- अप्रैल-मई,     ज्येष्ठ---- मई-जून,  
आषाढ--- जून-जुलाई,           श्रावण--- जुलाई – अगस्त,

भाद्रपद- अगस्त –सितम्बर,     अश्विन्--- सितम्बर-अक्टूबर, 
कार्तिक--- अक्टूबर-नवम्बर,    मार्गशीर्ष-- नवम्बर-दिसम्बर

पौष--दिसम्बर -जनवरी,         माघ---- जनवरी –फ़रवरी,  फाल्गुन-- फ़रवरी-मार्च

अब क्रिकेट की कुछ क्रिकेट के दीवानों लिए: भारतीय टीम के दो सदस्यों के नामआश्विन एवं कार्तिक भी  हिंदी महीनो के नाम पर है,किसी क्रिकेटर का नाम है क्या भारतीय क्रिकेट टीम में अगस्त सितम्बर या जुलाई ??

नव वर्ष मंगल मय हो...
आशुतोष की कलम से

मंगलवार, 11 मार्च 2014

केजरीवाल के साथ मीडिया की सट्टेबाजी एवं टीवी टुडे की राजनीति में बुरे फसे पुण्य प्रसून वाजपेयी

दो दिन पहले आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल का एक वीडियो सामने आया जिसमे वो एक खबरिया चैनेलआज तक के एंकर पुण्य प्रसून वाजपेयी के साथ खबर फिक्स करते हुए स्पष्ट सुने जा सकते हैं. सोशल मिडिया पर आज तक चैनेल के पुण्य प्रसून वाजपेयी की आम आदमी पार्टी के साथ साठगांठ की खबरे पहले से आती रही हैं मगर कोई पुख्त्ता प्रमाण न होने के कारण इसे सम्पादकीय विशेषाधिकार की श्रेणी में रखते हुए इलेक्ट्रानिक मिडिया ने कभी कवर नहीं किया.हालाँकि इससे पूर्व भी आम आदमी पार्टी का गुणगान करते करते IBN7 के पत्रकार आशुतोष गुप्ता केजरीवाल की पार्टी के नेता बन चुके हैं..
उस वीडियों में एक बात और भी जो दृष्टिगत है पुण्य प्रसून वाजपेयी और केजरीवाल उस साक्षात्कार में किस प्रकार भगत सिंह के नाम का उपयोग वोट लेने के लिए इस्तेमाल किया जाये,
इस पर बाकायदा विचार विमर्श कर रहे है.इस बात की कड़ी निंदा भगत सिंह के परिवारजनो ने भी की है.ज्ञातव्य है इसी केजरीवाल के अभिन्न मित्र और आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्य प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में भगत सिंह को आतंकवादी साबित किया है.
अब यक्ष प्रश्न ये है की क्या केजरीवाल ने मिडिया के दलाल किस्म के पत्रकारों से गठबंधन करके उनके सत्ता का लालीपाप दिखाकर राजनीति करने की एक नयी परंपरा प्रारंभ की है 
?? क्यूकी पत्रकारिता जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहते हैं क्या इस स्तर तक गिर गयी है जो राजीनीति के रहमोकरम पर पले. एक नेता जो खुद को ईमानदारी और पारदर्शिता का ठेकेदार कहता हैएक स्वयं को सबसे तेज चैनेल के सबसे तेज पत्रकार को ये निर्देशित कर रहा है की उसे क्या टीवी पर दिखाना है क्या नहीं दिखाना है ?? क्या आप मिडिया में संपादक की कुर्सी राजनेताओं के लिए आरक्षित करने की राजनीति में,एक पत्रकार की हैसियत सिर्फ चन्द टुकडो पर पलने वाला या राजनेता की टोपी पहनने को उत्सुक एक दलाल की बन गयी है?

वर्तमान हालात देखेते हुए इतना कह सकते हैं की पत्रकारिता इसी दिशा में बढ़ रही है और BEA एवं अन्य पत्रकारों तथा संपादको के संगठन को इस बात का संज्ञान ले के कुछ आत्मालोचना करनी होगी वरना हमाम में सब नंगे जैसे माने जायेंगे..इस खबर के आने के बाद zee News ने काफी सक्रियता दिखाई है क्या ये पत्रकारिता के उच्च मानदंड है जो zee News ने इस खबर को निरंतर दिखने का निर्णय लिया हैयदि आप इस मुगालते में हैं तो ऐसा बिलकुल भी नहीं है. अगर थोड़े दिन पीछे जाएँ तो जिंदल और zee News का कोयले घोटाले की खबर से सम्बंधित दलाली खाने का विवाद आप को याद ही होगा.जब नवीन जिंदल ने स्टिंग कर के ZEE के दो पत्रकारों को जेल भिजवा दिया. उस समय आज तक के वर्तमान एंकर पुण्य प्रसून वाजपेयी ZEE TV के प्राइम टाइम एंकर थे.उस समय इसे जिंदल और सरकार की इमरजेंसी कहने वाले पुण्य प्रसून ने कांग्रेस सांसद और इंडिया टुडे ग्रुप से अच्छी खासी पेशगी ले कर ZEE News छोड़ कर AAJ TAK ज्वाइन कर लिया. अब यदि जिंदल,कांग्रेस,पुण्य प्रसून और केजरीवाल के गठबंधन पर नजर डाले तो आम आदमी पार्टी या केजरीवाल ने कभी भी जिंदल के कोयला घोटाले पर कभी नहीं बोला कारण केजरीवाल की पार्टी को मिलने वाला मोटा चंदा.कांग्रेस और केजरीवाल दिल्ली में साथ साथ थे सरकार बनाने में.यहीं से ZEE ग्रुप की कांग्रेस,जिंदल,पुण्यप्रसून और आज तक से दुश्मनी शुरू होती है. अब मौका मिलते ही ZEE ने जिंदल के चहेते केजरीवाल और पुण्य प्रसून को लपेटे में ले लिया है..
एक शंका सब के मन में होगी की ये वीडियो आज तक आफिस से लीक हुआ कैसे 
?? हालाँकि आज तक के कई जूनियर स्तर के कर्मचारियों पर इसकी गाज गिर चुकी है मगर असली लड़ाई इंडिया टुडे ग्रुप में एक अन्य पत्रकार राहुल कँवल और पुण्य प्रसून के वर्चस्व को ले कर है.. याद कीजिये इंडिया टुडे कानक्लेव जिसमे पुण्य प्रसून के चहेते केजरीवाल को राहुल कँवल ने किस प्रकार सोमनाथ भारती के मुद्दे पर धो डाला था जबकि पुण्य प्रसून को आप कभी भी केजरीवाल चालीसा गाते सुन सकते हैं. आज तक आफिस में भी दो समूह बन गए हैं उनमे से राहुल कँवल समर्थक ग्रुप ने अवसरवादी पुण्य प्रसून को बाहर का रास्ता दिखने हेतु ये वीडियो जान बूझ कर लीक किया ..
 आज तक ने इसका खंडन किया है मगर ये आज तक की सफाई कम मज़बूरी ज्यादा लगती है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार zee ग्रुप सुधीर चौधरी के साथ खड़ा था ...
जैसे भी ये प्रकरण उठा हो मगर इससे स्पष्ट हो गया की स्वच्छ रानीति का ढोल पीटने वाले केजरीवाल और उनकी पार्टी ने भी कांग्रेस के साथ गठबंधन के वे सभी हथकंडे सिख कर अपनाने शुरू कर दिए हैं जिसे इस्तेमाल करके कांग्रेस पिछले ६० सालो से सत्ता के शिखर पर काबिज रही....

आशुतोष की कलम से

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

नक्सलवाद और खून खराबे की राह पर अरविन्द केजरीवाल .

पिछले कुछ दिनों से केजरीवाल मिडिया के कैमरों के फोकस से दूर हो रहे थे. कांग्रेस के साथ गठबंधन करके घसीटी गयी दिल्ली सरकार केजरीवाल के प्रधानमंत्री बनने की पागलपन भरी महत्त्वाकांक्षा के बोझ के नीचे दब के ठहर गयी. अगर ध्यान से देखें तो शुरू से ही केजरीवाल की पार्टी विरोध की राजनीति करती आई है. भारतीय राजनीति के स्वघोषित ईमानदार ने जब दिल्ली की सत्ता 49 दिन में छोड़ दी इस कारण  दिल्ली की जनता खुद को ठगा महसूस कर रही थी और केजरीवाल का जनाधार तेजी से निचे जा रहा था अतः एक बार पुनः केजरीवाल ने अपना पुराना दांव चलते हुए हिन्दुस्थान के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता और भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए गुजरात के विकास कार्यों का जायजा लेने के लिए गुजरात भ्रमण के कार्यक्रम का एक और स्टंट चला .यहाँ एक बात ध्यान देखने योग्य है की अब केजरीवाल जैसा व्यक्ति जिसने  दिल्ली की सत्ता ढंग से दो माह भी नहीं चला पाया और मैदान छोड़ कर भाग  गया वो पिछले १२ वर्षों से सफल शासन देने वाले नरेंद्र मोदी के कार्यों का मूल्यांकन करने का अद्भुत स्टंट करने गुजरात को निकला है.. राजनितिक दृष्टिकोण से देखें तो कांग्रेस में उर्जा नहीं बची है जो गुजरात में मोदी का विरोध कर सके अतः कांग्रेस से अपने पुराने अस्त्र के रूप में केजरीवाल को परोक्ष समर्थन दे कर नरेंद्र भाई मोदी को रोकने का एक अंतिम प्रयास कर लेना चाहती है. इस कुख्यात गठबंधन में कुछ न्यूज़ चैनेल और पुन्य प्रसून वाजपेयी जैसे दलाल पत्रकार भी सम्मिलित हैं. 5 मार्च को जैसे ही आम चुनावो के तारीखों की घोषणा हुई केजरीवाल ने आदर्श चुनाव संहिता और हिन्दुस्थान के कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए लगभग २० गाडियों के काफिले के साथ गुजरात भ्रमण पर निकले रास्ते में चुनाव आयोग के नियमो के अनुसार पुलिस ने केजरीवाल के काफिले को रोक कर, जब २० से ज्यादा वाहनों के एक साथ चुनाव प्रचार करने पर प्रश्न किया तो केजरीवाल ने खुद को गिरफ्तार करने की मांग रक्खी. दरअसल केजरीवाल चाहते भी यही थे की गुजरात में उन्हें गिरफ्तार किया जाये जिससे वो तथाकथित ईमानदारी के एकमात्र पुरोधा और नायक बन कर उभरे और एक ही दिन में नरेंद्र मोदी के समकक्ष आ खड़े हो जाएँ और केजरीवाल और उनकी गैंग अपनी इस राजनीति में काफी हद तक तब सफल होती दिखी जब गुजरात के पाटन में  पुलिस ने उन्हें लगभग २० मिनट तक थाने में बैठाये रक्खा.इस खबर को केजरीवाल के मिडिया के मित्रों ने अनवरत चलाना शुरू कर के पुनः केजरीवाल को युगपुरुष साबित करना प्रारंभ कर दिया और यहाँ तक बाते की जाने लगी की क्या मोदी केजरीवाल से डर गए हैं?? सच कहें तो शाम को ५बजे से पहले तक केजरीवाल अपने मनसूबे में सफल होते नजर आये मगर जैसे ही चुनाव आयोग का कडा रुख केजरीवाल ने देखा, प्रसिद्धि पाने हेतु उन्होंने अपना माओवादी और नक्सली रूप दिखाने का निर्णय लेते हुए मिडिया और एस एम एस द्वारा अपने सभी कार्यकर्ताओं को बीजेपी आफिस पर हमले का आदेश जारी कर दिया, जिसे आम आदमी कार्यकर्त्ता शांतिपूर्ण प्रदर्शन का नाम देते रहे. शाम लगभग 5.15 बजे आम आदमी के पत्रकार से नेता बने आशुतोष गुप्ता और पत्रकार से नेता बनी शाजिया इल्मी के नेतृत्व में सैकड़ो आम आदमी कार्यकर्ताओं ने पुनः चुनाव आचार संहिता का उलंघन करते हुए दिल्ली के बीजेपी कार्यालय में हमला बोल दिया और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पोस्टरों को फाड़ डाला एवं तोड़फोड़ शुरू कर दिया
.

लाठी डंडे से लैस हो कर केजरीवाल प्रायोजित हमला 
केजरीवाल के कार्यकर्त्ता लाठी डाँडो से लैस होकर तोड़फोड़ करते रहे और दिल्ली पुलिस मूकदर्शक बनी रही. जब स्थिति बिगड़ने लगी तो भाजपा के कार्यकर्ताओं ने आत्मरक्षार्थ प्रतिरोध प्रारंभ किया और लगभग ४५ मिनट बाद ये अराजकता का कार्यक्रम दिल्ली पुलिस द्वारा बंद कराया गया . ज्ञातव्य हो की इस प्रदर्शन हेतु केजरीवाल की पार्टी ने कोई अनुमति नहीं ली थी और पूर्णरूप से गैरकानूनी रूप से भाजपा कार्यालय पर एकत्र हुए उसके बाद उग्र एवं हिंसक प्रदर्शन किया .


अब सवाल ये है की गाँधी के आदर्शों की बात करने वाली आम आदमी पार्टी को माओवादियों और आतंकियों जैसे स्टंट करने की क्या जरुरत आन पड़ी .. इस पर एक गहन विचार की आवश्यकता है , सत्य ये है की जब व्यक्ति अपने बुरे दौर से गुजरता है तो वास्तविक रूप में आ जाता है कुछ ऐसा ही है केजरीवाल के लोगो के साथ.दरअसल माओवाद और अलगाववाद के आधार पर खडी और पाकिस्तान और बिदेशी चंदे के खाद पानी का असली रूप यही है.नक्सलवाद की तर्ज पर बात बात पर सड़क पर उतर कर छापामार तरीके से अराजकता और हिंसा फैला कर केजरीवाल की पार्टी ने शहरी माओवाद का जो ताना बाना बुनना शुरू किया है उसका परिणाम चुनाव की घोषणा होते ही पहले दिन देखने को मिल गया.
आम आदमी पार्टी के विधायक बीजेपी कार्यालय पर हमला करते हुए 


जिस प्रकार नरेंद्र मोदी का कद प्रतिदिन राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ रहा है देश के साथ साथ बिदेश में भी कई शक्तियां इससे विचलित हैं. चीन और अमरीका कभी नहीं चाहेंगे की भारत राजनितिक रूप से मजबूत हो और यहाँ  एक स्थिर और रीढ़ वाली सरकार बने जो आर्थिक और सामरिक दृष्टि से मजबूत निर्णय ले सके . चूकी नरेंद्र मोदी ने अपना आर्थिक सामरिक और विदेशनीति का अजेंडा मजबूती से कई मंचों पर रक्खा है जो अब भारतविरोधियों के माथे पर चिंता की लकीरे खीच रहा है. ये बात इससे भी पुष्ट हो जाती है की इस चुनाव का केंद्र बिंदु और कांग्रेस की गोंद में बैठी सभी पार्टियों का  एकमात्र विरोध का अजेंडा  नरेंद्र मोदी ही हैं..
मीडिया द्वारा पोषित  और विश्व के बचे एकमात्र स्वघोषित ईमानदार पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल दिन रात मोदी पर हमले कर रहे हैं जिससे की कम से कम एक बार नरेंद्र मोदी उनके आरोपों पर मुह खोले और वो रातो रात मीडिया के सहायता से नरेंद्र मोदी के समकक्ष खड़े होकर उनकी शक्ति को कमजोर करके भारत में पुनः एक राजनितिक अस्थिरता के मार्ग में धकेल कर खोखला किया जाये. मगर नरेन्द्रमोदी ने अपने एक कुशल प्रशासक का गुण और सालो का राजनितिक अनुभव दिखाते हुए “हाथी चलता रहता है और कुत्ते भोंकते रहते हैं” की नीति का अनुसरण करते हुए अपने राष्ट्रधर्म की लक्ष्य साधना में लगे हुए हैं. कांग्रेस और अमरीका पोषित केजरीवाल खीझ में एक के बाद एक अराजक स्टंट करते हुए मिडिया की सुर्खियाँ और फोर्ड फाउन्डेशन तथा पाकिस्तान से चंदा इकठ्ठा करने में व्यस्त हैं..
वस्तुस्थिति यह है की आज केजरीवाल का नाम आर्थिक,सामजिक,राजनितिक अराजकता का पर्यायवाची बन गया है. केजरीवाल का प्रभाव जहाँ भी है उस जगह को देखकर सोमालिया के मोगाधिशु जैसा अनुभव होता है जहाँ सरकार के नाम पर हथियारों से लैस लडाके और यहाँ तहां हिंसा फैलाते वार हेड्स के केजरीवाल जैसे नेता हैं.. अब जनता को यह समझना होगा की जिस प्रकार दिल्ली की जनता ने केजरीवाल पर भरोसा करके धोखा खाया क्या भारत की केन्द्रीय सत्ता के चुनाव में ये गलती दोहराकर पुनः देश को नीतिगत और आर्थिक रूप से पंगु बनाना चाहती है..

आशुतोष की कलम से  

बुधवार, 5 मार्च 2014

हमारा जौनपुर हमारा गौरव हमारी पहचान |

सोमवार, 3 मार्च 2014

आखिर क्यों राजनीति में आ रहे हैं अफसर ?

नौकरशाहों का राजनीति में आना क्या जायज है ..ऐसे ना जाने कितने सवाल मेरे मन में आ रहे हैं..इसके लिए क्या वर्तमान राजनीतिक हालात जिम्मेदार हैं या फिर कोई और कारण...नौकरशाहों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा से भी इनकार नहीं किया जा सकता..। अभी तक राजनीति में डॉक्टर और वकीलों का ही वचस्व रहा है। लेकिन एकाएक आईएएस और आईपीएस रैंक के अधिकारी भी शामिल हो रहे हैं..यहीं नहीं सेना के बड़े अफसर और देश की सियायत में खुफिया विभाग के अधिकारी भी उतरें तो लोग सोचने पर मजबूर होंगे ही... पूर्व सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह और रॉ के पूर्व प्रमुख संजीव त्रिपाठी बीजेपी का दामन थाम चुके है..। अब सुनने में आ रहा है कि देश की पहली महिला आईपीएस किरण बेदी भी जल्द ही बीजेपी का भगवा रंग धारण कर सकती है.. वैसे भी किरण बेदी का बीजेपी प्रेम किसी से छिपा नहीं है। .. संजीव त्रिपाठी पहले विदेशों में जासूसी करने वाली खुफिया एंजेसी रॉ के प्रमुख के तौर पर देश के दुश्मनों की हरकत पर नजर रखते थे अब बीजेपी में आकर विपक्षी दलों के नेताओं पर नजर रखेंगे..। पहले सेना में रहकर वीके सिंह देश की सुरक्षा की जिम्मेदारी देख रहे थे अब मोदी के सारथी बनकर बीजेपी के मिशन २०१४ के लक्ष्य को आसान बनाने की कोशिश करेंगे....ये लोग देश में चल रही कांग्रेस विरोधी लहर में अगर लोकसभा भी पहुंच जाएं तो कोई ताजुब नहीं...। पिछले कुछ महीनों पहले पूर्व केंद्रीय गृहसचिव आरके सिंह, पूर्व पेट्रोलियम सचिव आरएस पांडेय और मुंबई के पुलिस कमिश्नर रहे सत्यपाल सिंह नौकरी छोड़कर बीजेपी में शामिल हो चुके हैं..बीजेपी इन नौकरशाहों को चुनावी रण में उतारेगी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। इन नौकरशाहों को लगता है कि देश में चल रही नरेंद्र मोदी की लहर में वे भी सांसद बन जाएंगे..। ये लोग बीजेपी में शामिल होने से पहले कोई शर्त भी ऱखी होगी...हो सकता है मंत्री बनने के लिए लॉबिंग भी करवाएं..क्योंकि नेता जब चुनाव जीत जाते हैं तो उनकी नजर सबसे पहले मंत्री पद ही जाकर रुकती है.. इन्ही नौकरशाहों को देखकर और भी अफसर राजनीतिक अखाड़े में कूद सकते हैं..पार्टी कोई भी हो सकती है.. जो अफसर राजनीति में आने की सोच रखता होगा उसे नेताओं का तोता तो बनना ही पड़ेगा..ऐसे में राजनीतिक सोच वाले अफसर ईमानदारी से काम करते होंगे इसमें शंका ही है.... अगर निष्पक्ष तरीके से काम करने वाला अफसर नेताओं और मंत्रियों की नहीं सुनेगा तो हरियाणा में अशोक खेमका और उत्तर प्रदेश में दुर्गा शक्ति नागपाल की तरह उसका हाल होगा..जो बहुत कम ही अफसर चाहेंगे..। सताया हुआ अफसर अगर राजनीतिक दल से जुड़ेगा तो जाहिर है बदला लेने की कोशिश करेगा..ऐसे में सरकारी गोपनीय दस्तावेजों की जानकारी भी लीक हो सकती है...अगर राजनीतिक महत्वाकांशा वाला अफसर नेताओं के इशारे पर काम करेगा तो जाहिर है सरकारी खजाने की बंदरबांट होगी और साथ ही लोगों की हितों की अनदेखी भी । इन दोनों हालातों में अफसरों का रवैया देशहित में नहीं है..अगर ऐसा है तो यह सचमुच देश के लिए अच्छी खबर नहीं है.. मैं ये बातें इसलिए कह रहा है कि बीजेपी में शामिल होने वाले अफसर ज्यादार कांग्रेस शासन काल के ही हैं..पूर्व सेना प्रमुख वीके सिंह के उम्र विवाद को कौन भूल सकता है..। संजीव त्रिपाठी दिसंबर २०१० से दिसंबर २०१२ तक देश की सबसे बड़ी खुफिया एंजेसी रॉ के प्रमुख रहे। मुंबई के पुलिस कमिश्नर रहे सत्यपाल सिंह भी कांग्रेस शासन काल में ही पुलिस विभाग में बड़े पद पर रहे..ये बताने की जरुरत नहीं है कि महाराष्ट्र में कांग्रेस और एनसीपी की गठबंधन सरकार है..हो सकता है सत्यपाल सिंह कांग्रेस नेताओं के सताए हुए हों क्योंकि उन्होंने पुलिस कमिश्नर जैसे बड़े पद से इस्तीफा देकर बीजेपी के पाले में गए..पूर्व केंद्रीय गृह सचिव आरके सिंह और पूर्व पेट्रोलियम सचिव आरएस पांडेय बेशक नौकरी से रिटायर होकर बीजेपी में शामिल हुए लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया सकता कि उन्हें भी कांग्रेस सरकार में उन्हें परेशान नहीं किया गया होगा । आरके सिंह ने तो बाकायदा बीजेपी ज्वाइन करने के बाद केंद्र सरकार पर हमला बोला..उन्होने केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार पर सरकारी कामकाज में हस्तक्षेप करने का आरोप भी लगाया था..आरके सिंह ने तो सुशील कुमार को केंद्रीय गृहमंत्री लायक नहीं होने तक कह दिया था.. बीजेपी से जुड़ने के बाद सिंह ने स्वीकार किया कि गृह सचिव का पदभार संभालने के कुछ ही महीनों बाद से ही सुशील कुमार शिंदे से उनके मतभेद शुरू हो गए थे। ऐसा माना जाता है कि सभी सरकारें अपने पसंदीदा अफसर को ही बड़े पद पर बैठाती हैं...जिससे उनसे मन मुताबिक काम लिया जा सके..वैसे भी नेताओं और अफसऱों की जुगलबंदी से भ्रष्टाचार में इजाफा हुआ है ये जग जाहिर है..संयोग से कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में ही कई बड़े-बड़े घोटाले हुए हैं..अगर प्रदेशों की बात करें तो जहां भी सबसे अधिक भ्रष्टाचार हुए हैं वहां पर सत्ताधारी दल और बड़े-बड़े अफसरों की मिली भगत सामने आई है..ये बातें जांच एजेंसियों से साबित भी हो चुकी हैं..चाहे यूपी में बसपा सरकार के शासनकाल में घोटाले रहे हों या फिर महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी की सरकार रही हो या फिर कर्नाटक में येदियुरप्पा के नेतृ्त्व वाली बीजेपी सरकार रही हो.। सभी विभागों में मंत्रियों और नेताओं के साथ अफसरों की भ्रष्टाचार में सबसे अहम भूमिका रही है..अगर उद्योगपतियों की बात की जाए तो नेताओं की मिली भगत से ही महंगाई में आग लगी है...जिसकी तरफ आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल भी समय-समय पर सवाल उठाते रहे हैं.. अगर इन हालातों में कोई अफसर ईमानदारी बरतेगा तो उसे प्रताड़ित तो होना ही पड़ेगा..लेकिन राजनीति में आकर फिर उसी दलदल में शामिल हो या बात समझ में कम आती है ..मै किसी पार्टी या फिर अफसर से नेता बने इन लोगों पर कोई आरोप नहीं लगा रहा हूं..और ना ही ऐसी कोई मेरी मंशा ही है... लेकिन देश की जनता को यह पता होना चाहिए आखिर एकाएक अफसर राजनीति में क्यों आ रहे हैं..यदि विपक्षी पार्टी में शामिल हों तो शक और गहरा जाता है..आखिर राजनीति में आकर अफसर क्या संदेश देना चाहते हैं।