रविवार, 1 मई 2011

गजल

पहले वे क्या थे, अब क्या हो गये

न जाने क्यूं , मुझसे जुदा हो गये

हम बदल गये, या कि वो बदल गये

जजबात दरकिनार , कौम को बदल गये

हालात मेरी देखकर, पत्थर भी पिघल गये

कुछ ऐसे भी इन्सान,जो सच को निगल गये

तब्दिलियों की राह पर चल कर फिसल गये

रहमत थी कुछ भगवान की गिरकर सँभल गये
-मंगल यादव

3 टिप्‍पणियां:

  1. एक तरफ हालत से पत्थर पिघल रहें है दूसरी तरफ इन्सान पलायनवादी हो कर बदल रहे हैं..
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
    आभार


    आशुतोष की कलम से....: धर्मनिरपेक्षता, और सेकुलर श्वान : आयतित विचारधारा का भारतीय परिवेश में एक विश्लेषण:

    जवाब देंहटाएं
  2. मंगल जी सुन्दर रचना

    कुछ ऐसे भी इन्सान,जो सच को निगल गये

    आज कुछ ही नहीं अधिकतर लोग सच को निगल गए वाले मिल रहे हैं आओ इसे बचाए रखें और आप की मनोकामना पूरी हो रहमत हो भगवान की भटके हुए लोग पुनः धारा में आयें

    जवाब देंहटाएं
  3. आप बड़े भाईयों को प्रणाम और उत्साह वर्धन के लिए धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं