मंगलवार, 7 मार्च 2017

डियर जिं़दगीः डियर बच्चे

रात के एक बजे का सन्नाटा और ‘‘डियर जिं़दगी’’ का अन्तिम दृश्य। एक अनोखी, भिन्न एवं संवेदनशील विषयक फ़िल्म। अत्यन्त खास। ‘खास’ इसलिए कि यह कहीं न कहीं, किसी न किसी प्रकार से हम सबकी ज़िंदगियों एवं जीवन-शैलियों से संबंधित है। कदाचित इसीलिए इसकी कहानी दिल को न केवल छू गई अलबत्ता दिल को ‘लग’ गई। बाध्य कर दिया इस फ़िल्म ने रात के एक बजे लिखने के लिए। अनिंद्रा ने प्रातःकाल की प्रतीक्षा की अनुमति प्रदान नहीं की। भोर का विलम्ब कहीं भावनाएँ की आँधी के वेग को कम न कर दे। एक भी संवेदना अलिखित न रह जाए। इस भगौडे़ वक्त का भी तो भरोसा नहीं। इस विषय पर आरंभ करने से पूर्व फ़िल्म की निदेशिका ‘गौरी शिंदे’ को बहुत-बहुत धन्यवाद एवं शुभकामनाएँ, जिन्होंने इतने संजीदा विषय को इतनी खूबसूरती से प्रस्तुत किया। समस्त अभिनेता एवं अभिनेत्रियों को बधाई। मुख्यतः आलिया भट्ट। आलिया से बेहतर इस भूमिका को कोई और अभिनेत्री निभा ही नही सकती थी। बहरहाल, पुनः फ़िल्म के विषय की ओर ध्यानस्थ होते हुए। ‘‘बच्चे’’, ढाई अक्षर का बेहद वजनी शब्द। एक अकथित जिम्मेदारी। हमारे जीवन की अभिन्न एवं अनमोल धुरी। प्रत्येक परिस्थिति में इनकी ढाल बन हम इन्हें प्रसन्न एवं सम्पन्न देखना चाहते हैं। हमारे दिन-रात मात्र इनके दुःख-सुख की चिंता में व्यतीत होते हैं। उनके भविष्य के लिए विचलित एवं चिंतित, उनके वर्तमान के लिए भयभीत, उनके लिए विभिन्न योजनाएँ बनाते-बनाते हम अपने सुख एवं आनंद से बेपरवाह हो गए हैं। हालांकि उन्हें एक अच्छा एवं समृद्ध जीवन देने की हमारी अति-अभिलाषा ने हमें कहीं यथार्थता से दूर भी किया है परन्तु माता-पिता ऐसे ही होते हैं। अपने अरमानों एवं स्वपनों की आहुति से बच्चों के उज्ज्वल भविष्य को प्रदीप्त करते ‘माता-पिता’। परन्तु यदा-कदा त्यागों की श्रृंखला लम्बी करते-करते हम बच्चों की हमसे वास्तविक अपेक्षाओं की अवहेलना कर जाते हैं। बलिदानों की कृतज्ञता से बच्चों को दबाकर उनके सम्मुख हम अपनी महानता एवं श्रेष्ठता प्रस्तुत करना चाहते हैं। परन्तु क्या वास्तव में हमारे बच्चे हमारी उस महानता के लोभी हैं? या वे हमसे कुछ और ही आस लगाए हैं? इस फ़िल्म की बात करें तो ‘कायरा’ जिसके इर्द-गिर्द यह सारी पटकथा घूम रही है, वह अपने माता-पिता से वास्तव में क्या चाहती है, यह वे समझ ही नहीं सके। उसके माता-पिता उसकी भलाई समझते हुए उसे उसके नाना-नानी के पास छोड़ अपना बिजनेस सेट करने चले जाते हैं। किंतु एक बच्चे के मृदुल मन पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है, इससे वे अनभिज्ञ थे। मुझे अपनी मित्र की एक बात अक्सर याद आती है और अपने बच्चे के प्रति संवेदनशील रहने के लिए कभी उस बात को विस्मृत नहीं किया जा सकता। मैं नहीं चाहती कि कभी अज्ञानतावश भी मैं वह भूल कर जाऊँ, जिसका दुष्प्रभाव उसके मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़े हुए है। मेरी मित्र की मम्मी उसे दो माह की आयु में छोड़कर विदेश घूमने चली गई थी। आज भी वह पैतींस वर्षीय मित्र अपनी माँ से इस बात के लिए रूष्ट है। एक प्रश्न उसे बार-बार कौंधता हैै- ‘‘क्या घूमना मुझसे भी अधिक आवश्यक था माँ?’’ गौरतलब यह भी है कि दो माह की बच्ची के साथ घटित इस घटना को किसने और किस प्रकार उसके सम्मुख प्रस्तुत किया? ऐसा क्या बताया या सिखाया गया कि उसके मासूम मन पर इतनी गहरी चोट लगी। संभवतः उसकी माँ घूमने न जाकर किसी विशेष कार्य के लिए गई हो। कुछ भी हो सकता है परन्तु बाल-मन पर उन बातों का क्या प्रभाव पड़ा, यह विचारणीय है। मेरे संज्ञान में ऐसी कई महिलाएँ हैं जो मुरादाबाद से मेरठ प्रतिदिन यात्रा कर नौकरी कर रही हैं। उनके गन्तव्य तक का आने-जाने का सफ़र लगभग 300 किमी. प्रतिदिन है। प्रातः तीन बजे उठना। कभी ट्रेन तो कभी बस। सुबह-सुबह की परेड। मार्ग में प्रतिदिन एक नया अनुभव। विभिन्न प्रकार के लोग। कई स्वस्थ व्यक्ति के रूप में मनोरोगी। प्रतिदिन जीवन का खतरा। सुबह निकले तो हैं पर रात को घर लौटंेगे या नहीं। कभी रात को सात बजे घर आना, तो कभी नौ बजे। तीन बजे से भागते-भागते रात को बारह बजे तक भागना। उनमें से कई महिलाओं के पति भी किसी अन्य शहर से आते-जाते इसी प्रकार का जीवन व्यतीय कर रहे हैं। दिनभर अपनी-अपनी नौकरी कर ये पंक्षी रात को अपने रैन-बसेरे में वापस लौट आते हैं। वे दोनों मात्र एक प्रश्न के भय से भाग रहे हैं- ‘‘आप दोनों मुझे नाना-नानी के घर छोड़कर पैसा कमाने चले गये थे। आपको आपके करियर से प्यार था, मुझसे नहीं। मुझे आप दोनों चाहिए थे पैसा नहीं।’’ इन वाक्यों के भय ने उन सबकी ज़िंदगी का रूख मोड़ दिया है। बहुत सरल-सा प्रतीत होता है यह ‘अप-डाउन’ शब्द। परन्तु इसके पीछे के कष्ट कई बार असहनीय हो जाते हैं। रात की नींद से रू-ब-रू मात्र छुट्टियों में ही हो पाते हैं। जब सारी दुनिया भयंकर सर्दियों में रात के तीन बजे की गहरी नींद में मूर्छित-सी होती है उस समय इनकी रसोइयों में खाना पक रहा होता है। नींद की तो मानो इनसे शत्रुता गई हो। थकान ने स्थाई तौर पर इनकी देह में प्रवेश कर लिया हो। अब तो अहसास होना भी बंद हो गया है। रात को अपने बच्चे के चंद घंटों के साथ के लोभ में ये प्रतिदिन भागते रहते हैं। अगले दिन की भागदौड़ के लिए जब ये बच्चे को रात को नानी-दादी के घर छोड़कर जाते हैं तो बच्चे के द्वारा प्रतिदिन कहे जाने वाले शब्द ‘मम्मी जाना नहीं’ आज यह फ़िल्म देखकर डरा रहे हैं। कहीं कल हमारे बच्चे हमसे यह शिकायत तो नहीं करेगें कि आप तो मुझे छोड़कर चले जाते थे! शायद इसीलिए रात के एक बजे विचारों की भँवर में डूबे नींद का दामन छोड़ कलम को उँगलियों में सुशोभित कर दिया है। क्या समझा पाएँगे ये माता-पिता अपने बच्चों को अपनी मजबूरी, अपनी जटिलताएँ। क्या समझ पाएगा वह कभी कि क्यों उसके माता-पिता उसे छोड़कर जाने के लिए बाध्य हैं? न जाने कितने माता-पिता अपने बच्चों व परिवार के लिए प्रतिदिन के खतरों व कष्टों को झेलते हुए नौकरी कर रहे हैं। कितनी ही माएँ अपने दूधमुहे बच्चे के साथ सामान के बोझ से लदी अकेली ही ट्रेनों व बसों का सफ़र करती हैं। अपने परिवारों से हजारों किमी दूर, अनजानी जगह-अनजाने शहर में परेशान-बेबस। केवल माँ ही नहीं वरन् लाखों पिता भी अपने बच्चों से दूर उनके सुखी भविष्य के लिए नौकरी की मजबूरी में अलग-अलग शहरों से सफ़र करते हैं। एक समाचार-पत्र के अनुसार लगभग डेढ लाख लोग मेरठ से दिल्ली प्रतिदिन सफ़र करते हैं। यह आँकड़ा मात्र मेरठ से दिल्ली के बीच के मुसाफ़िरों का है। और भी न जाने कितने शहरों एवं गाँवों की इसी प्रकार की स्थिति है। यह सही है कि सबको मनपसंद स्थान पर काम मिलना या सरकार की तरफ से दिया जाना सरल नहीं। परंतु जहाँ सरल किए जाने की संभावना एवं साधन हैं, वहाँ तो प्रयास किए जाने चाहिए। यात्रा के सुगम एवं सुरक्षित परिवहन साधनों की व्यवस्था, महिलाओं के लिए ट्रांसफर के सरल नियम, नौकरी के स्थान की परिसीमा में रहने की बाध्यता समाप्त करना इत्यादि। सामाजिक प्रतिष्ठा से लेकर पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन तक ‘नौकरी’ शब्द अपनी अहम भूमिका निभाता है। यह मजबूरी भी है और आवश्यकता भी। परन्तु इन सबके साथ-साथ एक अन्य शब्द की भी अवहेलना नहीं की जा सकती। वह है परिवार। मुख्यतः बच्चे। देश, परिवारों से बनता है और यदि परिवार ही बिखर जाएंगे तो देश के अस्तित्व की कल्पना ही बेमानी है। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपने देश को एक शिक्षित एवं संस्कारी परिवार दे दे तो देश से भ्रष्टाचार, बेइमानी, अपराध जैसे व्याधियाँ स्वतः कम हो जाएंगी। ‘‘कोई व्यक्ति देश के लिए कितने घंटे कार्य करता है, से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है वह देश के लिए किस प्रकार के कार्य करता है’’। यदि व्यक्ति अपने कार्यस्थल पर संतुष्ट नहीं है और अपने परिवार तक वह कुंठा लेकर जाता है तो निश्चित रूप से उसके परिवार में संतोष-सुख जैसे शब्दों को स्थान नहीं मिल सकेगा। और यहीं से परिवार की खूबसूरत तस्वीर बदरंग होनी शुरू हो जाएगी। परिणामस्वरूप जाने-अनजाने व मजबूरी में ऐसे परिवारों में अपराधिक प्रवृत्तियों का जन्म होना प्रारंभ हो जाता है। हम भारत में अमेरिका की कल्पना करते हैं। ब्रेन-डेªन की आलोचना करते हैं। परन्तु इसके पीछे के वास्तविक कारणांे का सामना नहीं करना चाहते। कितनी ही बार यह विषय चर्चा में रहता है कि भारत का टेलंेट बाहर विदेशों में क्यांे जाता है? कारण स्पष्ट है, जिसे हम ‘जॉब सेटिस्फैक्श’ के नाम से भी जानते हैं। बहरहाल बात शुरू की थी ‘डियर ज़िंदगी’ से। निश्चित रूप से बच्चे मासूम होते हैं। वे प्यार के साथ-साथ आपका स्नेही स्पर्श भी चाहते हैं। आपकी व्यस्तताओं को समझने की समझ उनमें नहीं होती। बहुत सरल एवं ज़िंदगी की कटुता से अनभिज्ञ ये मासूम न जाने किस बात पर आपसे नाराज हो जाएं, आप समझ भी न सकेंगे और ये कह भी न सकेंगे। ‘काम-काम-काम’ ये भाषणों तक रहने दे लेकिन वास्तविक जीवन में परिवार को समय दें। विशेष रूप से बच्चों को। उनका बचपन फिर कभी नहीं लौटेगे। उनकी नन्हीं शरारतें जो आज आपको परेशान भी कर जाती है अगर खामोश हुई तो तड़प उठंेगे आप। ख्याल रखिए उनका।