शनिवार, 23 अप्रैल 2011

हंस को कौआ- बना डालते हैं




ये संसार नश्वर हैं
मर्त्य है सब
इस मर्त्य लोक में
फिर भी इस कडवे सच को
दफ़न कर  हम भूल जाते हैं
खुद को अमर बनाने में
जुटे रहते हैं -दम घुटने तक
चींटियों सा ढोते- बिल- में
'घर' भरते रहते हैं -दिन -रात
और एक हलकी
बारिस  भी अपनी ताकत
दिखा जाती है -तूफान बन जाती है
अपना जमा-जमाया
बहा ले जाती है पल में
भरने की इस होड़ में
जोड़ तोड़ के मोड़ पे
कृत्य को कुकृत्य
अपने को पराया
कर्म को दुष्कर्म
हंस को











कौआ
बना डालते हैं
नोचने लगते हैं बोटी
जहाँ भी मिले -सडा गला
मन को भाने लगता है
'अपना'- 'प्रिय' हो जाता है
और हम ऊँचाई पर उड़ते  
गिद्ध से ताकते कुछ
अकेले हो -

(photo with thanks from other source)
कुछ साथी
की तलाश में -भीड़ से जुदा
बस उड़ते ही रहते हैं
न ओर न छोर !!
अपनी प्यारी धरा छूट जाती है
खोखला बोझिल मन लिए
कभी खोह कभी - जंगल छुप कहीं
सो जाते हैं और होते सुबह
फिर नोचने -घर भरने लगते हैं
काश हम यहीं -यहाँ बसते
पैरों तले जमीं होती
मनुहारी छाँव -शीतल
एक धारा में बहते
साथ साथ रहते
एक सुर में गाते
'अमरत्व' के लिए -
अपना 'किया'-'धरा' -छोड़ जाते
अमर होने के लिए बस
पार्क -चौराहों पर
अपनी मूर्ति ना लगवाते !!

सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
२३.४.२०११ जल पी.बी

4 टिप्‍पणियां:

  1. आप की बात बिलकुल सत्य है..
    मगर हम सभी इस कृत्य में शामिल होते है..हर कोई बोटो नोचने में लगा है..जो हंस है वो अस्तित्वविहीन होता जा रहा है..
    बहुत सुन्दर

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  2. आशुतोष जी आप ने बिलकुल सच कहा सभी इसमें शामिल हैं- कुछ अपवाद को छोड़ -जिन जैसा ही हमें आज इस धरती पर जरुरत है स्वार्थ से ऊपर उठ अपने कार्यों से अपनी छाप छोड़ जाने की जरुरत हैं
    धन्यवाद

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  3. हरीश जी रचना आप को अच्छी लगी -आभार आप का भी आप की प्यारी प्रतिक्रिया के लिए
    सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर ५

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