जलते हुए दीप को
दूर से आते देखा
जिन्दगी के हर मोड़ पर
कुछ बनते,कुछ बिगड़ते देखा
पुष्पों की शैया को
कंटको मे बदलते देखा
जो खुद जिन्दगी बनाता
मैने उसको कलपते देखा
जलते हुए चिराग को
भष्म की गलियों से गुजरते देखा
जो खड़े थे गम के द्वार पर
प्रिया को उनसे मिलते देखा
शैतान थे जो जनम के
इन्सान में बदलते देखा
जो नरेश था शान-शौकात का
याचक मे बदलते देखा
प्रतिभा का धनी जो
सृष्टि को बदल सकता है
उसकी मातृत्व प्रतिभा को
हाथ से छिनते देखा
जो शेर था अपने समय का
गीदड़ को दौड़ाते देखा
थी जहां शाम सदियों से
सूरज को वहां चमकते देखा
उड़ रहे थे जो पक्षी
जमीं पर आ न पाये
चाहते थे कुछ कहना
मगर कुछ कह न पाये
घोसलें थे जो प्यारे-प्यारे
इन्सान को उजाड़ते देखा
नन्हें-नन्हें बच्चों का
मातृत्व छिनते देखा
जो खास थे अपने
दुश्मन में बदलते देखा
महकती बगिया
जो ईश की वरदान थी
रेगिस्तान में बदलते देखा
इतनी सी छोटी उम्र में
पिता-पुत्र,भाई-भाई को
घमासान करते देखा
जलते हुए दीप को
पास से गुजरते देखा ।।
- मंगल यादव
गीता सर भी तो यही है..कुछ भी स्थायी नहीं है इस नश्वर संसार में..
जवाब देंहटाएंइस दर्शन की सुन्दर काव्यात्मक अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद..
पुष्पों की शैय्या को
जवाब देंहटाएंभस्म की गलियों से गुजरते देखा
जो नरेश था शान-शौकत का
उड़ रहे थे जो पंछी
मंगल जी बहुत ही सुन्दर कविता -जिंदगी के हर मोड़ पर कुछ बनते कुछ बिगड़ते देखा -आप ने इसमें जिंदगी के हर रंग को शामिल कर इस रचना में जान भर दी -बधाई हो-मेरे लिखे अपनी ऊपर की पंक्तियों को मन भये तो एडिट करें -धन्यवाद
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल भ्रमर५
आओ महकाएं अपनी बगिया -फूल खिले हों कोयल बोले
sundar kavita. mangal ji lable me kavita bhi dena chahiye.
जवाब देंहटाएंआप लोगों को उत्साह वर्धन के लिए धन्यवाद।
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