शुक्रवार, 26 अगस्त 2011
‘‘बंद दरवाजे’’
आज मॉर्निग वॉक करते हुए राव साहब कुछ चिन्तित लग रहे थे। उनकी चिन्ता को देखकर शर्मा जी ने पूछा, ‘‘क्या बात है राव साहब आज बड़े परेशान दिखाई दे रहे हैं? सब कुशल मंगल तो है ना?’’
राव साहब ने कहा, ‘‘ क्या बतायें शर्मा जी बेटा विलायत से पढ़कर आया है और अब इतनी अच्छी सरकारी नौकरी भी है। धन-धान्य की कोई कमी नहीं है। न ही कोई लालच ही है। फिर भी एक योग्य बहु नहीं मिल रही है।’’
‘‘बस इतनी सी बात। रूकिये जरा।’’ पास ही व्यायाम करते चौधरी साहब को बुलाते हुए, ‘‘और चौधरी जी सब ठीक-ठाक?’’
‘‘हाँ जी सब बढ़िया। आप सुनाईये शर्मा जी।’’
‘‘चौधरी जी ये राव साहब हैं, हमारे परिचित और रिटायर्ड इंजीनियर। आपकी बेटियाँ क्या कर रही हैं आजकल?’’
‘‘बस पढ़ाई पूरी हो गई और सरकारी नौकरी भी लग गई।’’
‘‘तो क्या कोई लड़का-वड़का देखा बिटिया के लिए?’’
‘‘क्या बतायें शर्मा जी कोई योग्य लड़का मिलता ही नहीं।’’
‘‘हा-हा-हा। यह तो वही बात हो गई कि बगल में छोरा शहर में ढ़िंढ़ोरा। राव साहब का बेटा विलायत से पढ़ाई करके आया है और अब पिता के ही नक्शो कदम पर सरकारी इंजीनियर है। आप लोग आपस में बात कर लीजिए मैं जरा आगे तक हो आऊँ।’’
15 मिनट बाद वापस लौटे शर्मा जी को राव साहब अकेले बैठे दिखाई दिये। ‘‘क्या हुआ राव साहब? कुछ बात जमी?’’
‘‘आप भी कमाल करते हैं शर्माजी। कहाँ फँसा कर चले गये थे हमें? निःसन्देह चौधरी साहब की बेटियाँ बहुत योग्य व सुशील हैं, पर है तो तीन बेटियाँ ही। मैं ऐसे घर में अपने बेटे की शादी कैसे कर दूँ जहाँ आगे कोई परिवार नहीं? इन बंद दरवाजों पर मैं ही क्यों सर पटकूँ।’’ यह कहकर नाराज राव जी आगे बढ़ गये।
आवाक् खड़े शर्मा जी पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया हो। इस सोच के परे भला कैसे किसी को समझाया जा सकता है? आज भी स्वतंत्र होते मस्तिष्क की जड़ें दकियानूसित की बेड़ियों से जकड़ी हैं जिसमें योग्यता घुटनों के बल तरसाई आँखों से अपने लिए इंसाफ की फरियाद कर रही है।
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