नई दिल्ली।। यूपी में चुनावी समर छिड़ चुका है। हर गली, हर मुहल्ले में विभिन्न पार्टियों के बैनर लगे दिख जाएंगे। ये झण्डे वे लोग लगाये होते हैं जिन्हें साढ़े चार साल तक कोई नेता नही पूछता। ये गरीब,मासूम वही लोग होते हैं जिनको ये राजनीतिक लोग दुख में ही नहीं सुख में भी नही पूछते।
दिन भर रोजी-रोटी के जुगाड़ में भागने वाले लोग चुनावी मौसम में खुद को राजनीतिक लोगों के करीबी समझने की भूल कर बैठते हैं। राजनेताओ के मीठी-मीठी बातों में आकर आम आदमी अपना दिन खराब करके राजनेताओ के पीछे-पीछे घूमता फिरता है। बदले में हासिल होता कुछ नहीं। अगर होता है भी तो कुछ गिने- चुने लोगों के जो वास्तव में नेताओं के या तो करीब होते हैं या फिर रोज-रोज नेताओं के घर की परिक्रमा करते हैं। बर्षाती मेढ़क की तरह होते हैं राजनेता। अक्सर राजनेता तभी क्षेत्र में दिखते हैं जब उन्हें वोट की जरुरत होती है। अन्यथा क्षेत्र में जाकर भी आम आदमी से मिलने की कोई जोहमत नही उठाते। सिर्फ खास लोगों से मुलाकात ही नेताओं की मजबूरी होती है। मुझे नही पता ये मजबूरी आखिर क्या होती है लेकिन ये तो तय है मजबूरी कुछ न कुछ जरुर होती है।
नेता मेढ़कों की भांति टर्र-टर्र करते हुए गरीब- असहायों का मशीहा बताते नहीं थक रहें हैं। दिन-भर के व्यस्त कार्यक्रम में सिर्फ आम आदमी ही नेताओं को दिख रहा है क्योंकि किसान, मजदूर बेचारे जल्द ही नेताओं के झांसे में आ जाते हैं। अगर आम आदमी इन नेताओं के बहकावे में नही आता तो अपने-अपने घर पर पोस्टर बैनर नही लगाया जाता, क्षेत्र का विकास ना होने और भ्रषटाचार के जिम्मेदार लोगों के प्रति नाराजगी दर्ज कराते देखा जा सकता है। लेकिन फिलहाल ऐसा सिर्फ आजमगढ़ के एक गांव के अलावा कहीं नहीं दिखा। आम आदमी विभिन्न पार्टियों के बैनर लगाकर खुद को सम्बंधित पार्टियों के कार्यकर्ता समझ बन बैठते हैं। जिन्हें चुनाव बाद खुद उसी क्षेत्र के प्रत्यासी नही पहचानते।
मेंढ़क मैं इसलिए नेताओं को कह रहा हूं क्योंकि हाल के दिनों में कुछ चुनावी प्रचारक जनता के बीच जाकर यह बात स्वीकार कर चुके हैं। चुनावी सभाओं में जनता को सुविधा देने की बात कम और आरोप- प्रत्यारोप कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रहें हैं । जनता अपना काम-धाम छोड़कर चुनावी सभाओं में जाती है और तालियां भी बजाती है। अब तो दरवाजे-दरवाजे नेता और नेताओं के प्रतिनिधि बैंड-बाजे के साथ जाने लग गए हैं मालूम होता है जैसे कि बारात लेकर आ रहे हैं। चुनाव जीत जाने पर जनता को सरकारी योजनाओं में घोटाला और जरुरत की चीजों में महंगाई ही मिलती है फिर ना जाने क्यों जनता देती है। भ्रष्टाचार का विरोध करने पर जनता को लाठी चार्ज और जेल की हवा खाने को मिलती है। ये काम राजनेताओं के इशारे पर ही तो होता है। सामाजिक कार्यकर्ताओ के संपत्तियों की जांच करवाई जाती है। जनता कितना भोली-भाली होती है जो सिर्फ चंद दिनों में नेताओ की करतूतों को भुला बैठती है। अगर आप चाहें तो गलियों और मुहल्लों में विभिन्न पार्टियों के स्पोर्टरों को गिना जा सकता है जिनका चुनावी आकड़ों से सीधा मतलब होता है।
आजादी के बाद से ज्यादातर नेताओं से यही मिला है..ये हरचुनाव के मौसम में अपनी सुसुप्तावस्था से बाहर आ जाते हैं और फिर सत्ता मिल जाने के बाद सहवास में व्यस्त..
जवाब देंहटाएंआजादी के ६० साल बनाद सामान्य नागरिक को सोचना चाहिए की वो उपलब्धियों पर ताली बजा रहा है या अपनी मुर्खता पर खुद ही ताली ठोक रहा है इन नेताओं के साथ..
सदियों की दासता ने विदेशी धर्मों के माध्यम से जो गुलामी हम पर थोपी उससे उबार पाना असंभव तो है ही वरन यह हिंदू धर्म के अस्तित्व पर प्रभावशाली प्रश्नचिन्ह लगा रहा है.
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