रविवार, 26 फ़रवरी 2012

एक प्यारा शहर : गोरखपुर (गोरखपुर डायरी भाग दो)

एक प्यारा शहर : गोरखपुर

                                        ..... लगता है जैसे  देर हो रही है

गोरखपुर शहर कैसा था ? और कैसा हो गया है ? ये महत्व पूर्ण है, परन्तु उससे भी ज्यादा महत्व पूर्ण है कि ये शहर कैसा बनाया जा सकता है .

एक ऐसा शहर जो सुबह जल्दी जागता है , दौड़ता है, भागता है और सैर करता है .फिर जैसे जैसे दिन चढ़ता है हांफने लगता है और रेंगने लगता है . शायद इसी वजह से शाम को थक कर जल्दी सो जाता है . कैसी विचित्रता है सुबह सुबह पार्क, विश्वविद्यालय और अन्य जगहें सैर करने वालों से गुलजार रहती है तो दिन भर सड़कें और चौराहे बेतरतीब ट्राफिक से दो चार होते हैं . मन कसमसाता है आंदोलित होता है और बिना काम के भी ऐसा लगता है कि देर हो रही है. शाम को ८ बजते बजते शहर निढाल होने लगता है और सब कुछ ठहरने सा लगता है . बाजार जल्दी बंद होने लगते हैं . और ये शहर सोने की तैयारी करने लगता है . दिन भर की भीड़ भाड़ में सबसे अधिक होते हैं मरीज और उनके तीमारदार, रिश्तेदार . ऐसे लोगो की संख्या भी कम नहीं होती जो मुकदमों के मकड़ जाल में फंस कर कोर्ट कचेहरी के चक्कर लगा रहे होते हैं . काफी संख्या ऐसे लोगो की होती है जो खरीद फरोख्त के सिलसिले में शहर आते हैं और शाम को वापस लौट जाते हैं .

यह बहुत ही कम्प्लीट और  कॉम्पेक्ट   शहर है अपना गोरखपुर . औद्योगिक , चिकत्सा एवं स्वास्थ्य और शिक्षा का केंद्र है अपना शहर. दीन दयाल उपाध्याय विश्व विद्यालय , बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज सहित अनेक अच्छे विद्यालय हैं . कई अच्छे होटल और रेस्तरां भी हैं. पूर्वोत्तर रेलवे का मुख्यालय और स्टेट बैंक का आंचलिक कार्यालय भी है यहाँ .विश्वप्रिसिद्ध गोरखनाथ मंदिर और गीता प्रेस शहर को ऐतिहासिक ही नहीं बलिक श्रद्धा का केंद्र भी बनाते है. तमाम प्राचीन देवी देवताओं के मंदिर प्राकृतिक वातावरण और जंगलों में स्थित हैं इस शहर के आस पास .

ये सब कुछ किसी भी शहर को उन्नत एवं गौरवमयी बनाने के लिए पर्याप्त है . परन्तु ये सारी कड़ियाँ आपस में ठीक से जुडी नहीं हैं . बहुत कुछ अच्छा है पर लगता नहीं, बहुत कुछ सुन्दर है पर दिखता नहीं ,बहुत कुछ उपयोगी है पर महसूस होता नहीं. बहुत कुछ लाभप्रद है पर कुछ मिलता नहीं . कहीं भी जाएँ रह रह कर ऐसा लगता है जैसे देर हो रही है. सचमुच देर होते होते बहुत देर हो गयी है .

एक स्थान है सूरज कुण्ड. नाम से ही प्राचीनता का आभास और धार्मिकता का अहसास होता है. इच्छा हुई कि वहां जायं और बहुत जिज्ञासा समेटे मैं वहां पहुँच गया . सरोवर के बीचो बीच मंदिर, सरोवर में चारो तरफ सीडियां . अगर गौर से देखें तो पाएंगे कि कितने योजनावद्ध और सृजन शीलता से बनाया गया है ये सूरज कुण्ड . पर... शायद ही कोइ वहां आता होगा. जब मैं कार से उतर कर अन्दर घुसता हूँ तो वहां कुण्ड में कपडे धोती महिलाये और ताश खेल रहे कुछ लोग कौतूहल से मुझे देखते है . मैं उनकी परवाह किये बिना आगे बढ़ता हूँ तो पता चलता है कि चारो तरफ गंदगी का साम्राज्य है .अवैध कब्जे और झुग्गी झोपडी बना कर रह रहे हैं लोग . स्वछंद विचरण करते गाय .बकरी और सूअर. इतना सब देख कर बहुत आश्चर्य और दुःख हो रहा था . मैं सरोवर की परिक्रमा करना चाह रहा था पर लग रहा था जैसे कि देर हो रही है . मैं रुका फिर न जाने कैसे एक झटके से बाहर आ गया. यदि ऐसा स्थल सिंगापूर में होता तो इसे सजा संवार कर ऐसे पेश किया जाता जैसे दुनियां की दुर्लभ चीज हो और इसका टिकेट भी लगाया जाता कम से कम 20 $.
 
एक और जगह है रामगढ झील . एक विशाल झील दुनिया की सबसे बड़ी और गिनी चुनी झीलों में से एक . यदि आप तारामंडल की और से प्लेट फॉर्म पर खड़े होकर देखें तो अत्यंत सुखद अहसास होता है जैसे आप किसी व्यबस्थित शांत समुद्र के किनारे खड़े हों. शाम और सुबह बहुत अद्भुत नजारा होता है . उगते और डूबते सूरज का नजारा बहुत ही मनोरम होता है . इसे संवारने और प्लेट फॉर्म बनाने की परिकल्पना किसी ने भी की हो, सराहनीय है और मैं उन्हें नतमस्तक होता हूँ . इसे अद्भुत अविश्मर्नीय पर्यटन स्थल बनाया जा सकता है . पर्यटन का ये इतना बड़ा केंद्र हो सकता है कि शायद शहर की आधी आबादी इससे रोजगार पा सकती है और गोरखपुर विश्व पर्यटन के मान चित्र में जगह पा सकता है . मैं जब भी गोरखपुर में होता हूँ और समय होता है तो यहाँ अवश्य जाता हूँ . पर झील की हो रही दुर्दशा पर दिल में टीश उठती है . प्लेट फॉर्म पर कुत्ते, सूअर और आवारा जानवर बैठे मिलते हैं . लाइट्स टूट रही हैं प्लेट फॉर्म चटक रहा है . चारो तरफ गंदगी का साम्राज्य है. आज मैं जब यहाँ आया हूँ तो कुछ किशोरवय लड़के सिगरेट पीने और अन्य नशा करने के लिए इसे सुरक्षित पा रहें है . मछली के ठेकेदार मछलियाँ मार कर प्लेट फॉर्म का उपयोग पैकिंग करने के लिए कर रहे हैं . खड़ा होना मुश्किल हो रहा है . लगता है जैसे कि देर हो रही है ... मैं वापस चला आता हूँ .
यदि इस तरह की झील यूरोप के किसी देश में होती तो शायद वह झील का शहर कहलाता और वहां के सकल घरेलू उत्पाद में इसका अच्छा खासा योगदान होता .पर हम है कि जो हमारे पास है उसकी कोइ कीमत ही नहीं समझते.

राप्ती नदी इश्वर का वरदान है विशेषतया गोरखपुर के लिए . लेकिन इसका उपयोग, अहसास अच्छे काम के लिए नहीं हो पा रहा है . क्योकि यहाँ कोइ सुसज्जित घाट नहीं है स्नान ,ध्यान ,पूजा अर्चना या सैर सपाटे के लिए . घाट नदी के किनारे बसे किसी शहर की सांस्कृतिक पहचान होती है . आप नदी किनारे बसे किसी शहर में जाएँ और घाट पर न जाएँ तो बड़ा अजीब लगता है . लगता है जैसे आना अधूरा रहा . गोरखपुर में ऐसा ही लगता है . बाढ़ के समय ट्रेन या बस से जाने पर चारो तरफ पानी ही पानी दिखता है और तभी मालूम होता है कि यह शहर किसी नदी किनारे बसा है . मैं गोरखपुर में कई घाट नुमा जगहों पर गया पर नदी के किनारे की प्राकृतिक उपमा और सौंदर्य का संजोया न जाना बहुत खला . राजघाट जो वस्तुता श्मसान घाट है लोग ज्यादातर वहीं जाते है मजबूरी या अंतिम औपचारिकता निभाने.
जो भी हो पर राप्ती का कामार्सिअल और अद्ध्यात्मिक उपयोग नहीं हो पा रहा है. कहीं भी बहुत देर तक खड़ा होना मुश्किल होता है, लगता है कि जैसे देर हो रही है.
सचमुच बहुत देर हो रही है ...गोरखपुर में . फिरभी अपनापन समेटे यह शहर बहुत  प्यारा और बहुत अपना लगता है.



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शिव प्रकाश मिश्रा
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