कहते हैं कि अति हर चीज की बुरी होती है। ‘अति का भला न बोलना, अति का भला न चुप’। जिस प्रकार वाचालता अर्थ का अनर्थ करने के लिए पर्याप्त है, उसी प्रकार चुप रहने की अतिवादिता विपक्ष को दुष्टता का साहस प्रदान करती है और आमन्त्रित करती है विपत्तियों को। शायद यह दुस्साहस इसी अति का परिणाम है। आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह किस ‘अति’ की भूमिका बाँधी जा रही है। दरअसल पिछले कुछ दिनों में इंटरनेट पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व सोनिया गाँधी के चित्रों का भद्दा प्रदर्शन अब चरम सीमा पर पहुँच गया है। और न केवल मनमोहन सिंह के साथ अपितु बाबा रामदेव, लालकृष्ण आडवानी, दिग्विजय सिंह इत्यादि नेताओं के साथ श्रीमती गाँधी के चित्रों के अतिक्रमण ने कई प्रश्न खड़े कर दिये हैं- (1) सम्पूर्ण भारत में किसी भी अन्य महिला राजनेता के चित्रों का ऐसा घर्णित प्रदर्शन नहीं किया जाता। तो सोनिया गाँधी ही क्यों? (2) क्या इसका कारण उनका विदेशी मूल का होना है? (3) इस प्रकार का कुत्सित कृत्य यदि आम लड़की के चित्र के साथ किये जाने पर दंड का प्रावधान है तो सोनिया गाँधी के चित्र के साथ इस प्रकार का भर्त्सनीय अभ्यास करने वाला सजा का हकदार क्यों नहीं है? (4) और सर्वाधिक महत्वपूर्ण, किसी विधवा महिला का इस प्रकार किया जा रहा अपमान महिला समाज की संवेदनशीलता को क्यों व्यथित नहीं कर रहा है? कहाँ है महिला आयोग?
ये मात्र प्रश्न नहीं हैं। वस्तुतः वे गम्भीर विषय हैं जो एक महिला के मान-सम्मान की उड़ती धज्जियों पर बुद्धिजीवी वर्ग की गम्भीरता, सुझाव व समाधान की अपेक्षा करते हैं। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की बात बड़े जोरो-शोरो से की जाती है, उसके आत्मसम्मान को संरक्षण दिये जाने पर बड़ी-बड़ी बहस होती हैं। कभी कानून की पोथियाँ पढ़ी जाती है तो कभी आन्दोलन चलाये जाते हैं। वहीं दूसरी ओर देश की सर्वाधिक सशक्त महिला के चरित्र को चाय की चुस्कियों के बीच पल भर में दागदार कर दिया जाता है। किसी भी महिला के लिए उसके चरित्र को कलंकित करना, उसके जीवित अस्तित्व को अग्नि समाधि देने के तुल्य है। उसकी ईमानदारी, उसकी निष्ठा व उसकी प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह आरोपित करने जैसा है। ऐसे में चिन्तनीय विषय यह है कि जब दुनिया की इतनी प्रभावशाली महिला की प्रतिष्ठा असुरक्षित है तो आम महिलाओं की सुरक्षा की आशा तो अर्थहीन है। समाचार-पत्रों व टीवी चैनलों पर प्रतिदिन प्रकाशित व प्रसारित होने वाले समाचार महिलाओं पर होते अत्याचारों व अपराधों की कहानी कहते हैं। 21वीं सदी की महिला ‘अबला’ शब्द की उपमा से स्वयं को मुक्त नहीं कर सकी है। घरेलू हिंसा से बाह्य समाज तक खिंचती चोटियाँ, नील पड़े बदन, चीर हरण, कैरोसिन की जलन और सांसों की घुटन, पर कोई नहीं हल। पिता से भाई तक का छिछला होता भरोसा औरत को अन्ततः निर्बलता को स्वीकार करने के लिए बाध्य करता है।
एक अन्य प्रश्न जो मेरे मन को कचोटता है कि क्यों नहीं स्वयं सोनिया गाँधी इस प्रकार के चित्रों में होती वृद्धि पर विराम लगाने हेतु कोई कदम उठाती? उन्हें इसकी सूचना नहीं है, यह मानना तो असंभव है। क्या उनके लिए यह कोई गम्भीर समस्या नहीं है? यदि नही तो होनी चाहिए क्योंकि उनका एक सजग कदम प्रत्येक भारतीय महिला के आत्मसम्मान की रक्षा हेतु बुलंद होती आवाज के लिए प्रेरणा स्रोत होगा। हर लड़की अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के विरूद्ध दृढ़तापूर्वक विरोध कर न्याय प्राप्त करने का हौसला प्राप्त कर सकेगी। और इस प्रकार की प्रत्येक दूषित मानसिकता का मनोबल क्षीण हो सकेगा।
यह दुर्भाग्य है कि भारत में महत्तम महिलाएँ अपने साथ हुए दुर्व्यवहार व अत्याचार का रोना घर की चार दीवारी के भीतर कर, आसूँओं को पी जाती हैं। इस लाचारगी को वे अपनी नियति मानती हैं। परन्तु सोनिया गाँधी इस भाग्यवादिता का प्रतीक कैसे हो सकती हैं? और अगर वे इस व्यवहार को अपनी नियति स्वीकारती हैं अथवा इस विषय की उपेक्षा करती हैं तो उनका यह कृत्य भारतवर्ष की महिलाओं को निराश कर यह अवधारणा विकसित करने हेतु पर्याप्त है कि ‘‘अगर सोनिया गाँधी सरीखी सशक्त हस्ती अपने वजूद की लड़ाई लड़ने में असमर्थ है तो हम गरीब, असहाय व आम महिलाओं की क्या बिसात?’’ और साथ ही इस प्रकार की विकृत गतिविधियों को निरंकुशता का सानिध्य प्राप्त हो जायेगा। अतः सोनिया गाँधी की यह नैतिक जिम्मेदारी भी है कि वे इस प्रकार की दूषित सर्जनात्मकता पर अंकुश लगाये। और एक ठोस व कठोर कदम उठाते हुए आधी आबादी के लिए प्रतिमान स्थापित करें।
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