सोमवार, 14 मई 2012

महाभारत ,गाय और राजा रन्तिदेव :एक और इस्लामिक कम्युनिस्ट कुटिलता


कुछ लोग हमारी गौ माता को यह तर्क देकर काटते है की हिन्दू धर्म मे ही इस सब को मान्यता प्रदान की गयी है पर हमारे प्रिय मित्र श्री अंकित जी द्वारा लिखित यह प्रयास  तमाचा है उन लोगों के मुंह पर जो की गौ हत्या की वकालत करते हैं धर्म हमारे महान भारत देश का प्राणभूत तत्व रहा है और इसीलिए भारत के शत्रुओं ने बार बार हिन्दू धर्म पर प्रहार किया है और इसी कड़ी कुछ लोग यह हास्यास्पद बात कह रहे हैं की भारत में पुराने समय में गौ-मांस खाया जाता था और वो महाभारत के राजा रान्तिदेव को गौ हत्या करने वाला सिद्ध करने का मुर्खतापूर्ण परन्तु कुटिल प्रयत्न करते हैं |सबसे पहले तो देखे की महाभारत की रचना किसने की और इसे किसने लिखा था |महाभारत के श्लोक वेदव्यास रचित हैं और उन्हें श्री गणेश ने स्वयं लिपिबद्ध किया है | लेखन कार्य प्रारंभ होने से पहले श्री गणेश के यह शर्त रखी थी की मेरी लेखनी रुकनी नहीं चाहिए और वेदव्यास ने शर्त राखी थी की आप बिना समझे हुए कुछ नहीं लिखेंगे और इसके बाद व्यास जी ने जटिल और गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया था |महाभारत के सम्बन्ध में स्वयं भगवन श्रीकृष्ण कहते हैं की "इसमें ८८८०  श्लोक हैं जिनका अर्थ मैं जनता हूँ , सूत जी जानते हैं और संजय जानते हैं या नहीं ये मैं नहीं जनता .."| अब आप स्वयं ही सोचये की जिनके अर्थ को संजय जानते हाँ या नहीं इसमें संशय है वो क्या इतने सीधे होंगे की उनकी गूढता और प्रसंग का विचार किये बिना केवल शाब्दिक अर्थ (वो भी व्याकरण को छोड़कर) ले लिया जाय ?अब देखते हैं महाभारत के वनपर्व के वो श्लोक जिसके आधार पर राजा रंतिदेव को गोहयता करने वाला कहा जाता है -
 राज्ञो महानसे पूर्वं रंतिदेवस्य वै द्विज |
द्वे सहस्त्रे तु वध्येते पशुनंन्वहनं तदा |
अहन्यहनि वध्येते द्वे सहस्त्रे गवां तथा ||
हास्यास्पद कम्युनिस्ट - इस्लामिक अर्थरान्तिदेव नामक एक राज प्रतिदिन  लोगों  को मान्स  बांटने के लिए दोहजर पशुओं और दो हजार गायों की हत्या करता था |

व्याकरणगत अशुद्धि - 
 इस श्लोक में 'वध्येते'" का अर्थ मारना लिया गया है जो की संस्कृत व्याकरण के अनुसार पूर्णतयः अशुद्ध है क्यूँकी संस्कृत में 'वध' धातु स्वतन्त्र है ही नहीं जिसका अर्थ 'मारना' हो सके ,मरने के अर्थ में तो 'हन्' धातु का प्रयोग होता है |पाणिनि का सूत्र है "हनी वध लिङ् लिङु च " इस सूत्र में  कर्तः हन् धातु को वध का आदेश होता है अर्थात वध स्वतन्त्र रूप से प्रयोग नही हो सकता है |अतः व्याकरण के आधार पर स्पस्ट है की की ये 'वध्येते ' हिंसा वाले वध के रूप में नहीं हो सकते हैं | तब हंमे यह ढूढ़ना पड़ेगा की इस शब्द का क्या अर्थ है और निश्चय ही ये हत्या वाले 'हिंसा' नहीं अपितु बंधन वाले ' बध बन्धने' धातु है |
इसके अतिरिक्त २ और पंक्तियाँ है जिनके आधार पर राजा रान्तिदेव को गोवध करने वाला , ऐसा सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है -
समांसं ददतो ह्रान्नं रन्तिदेवस्‍य नित्‍यशःअतुला कीर्तिरभवन्‍नृप्‍स्‍य द्विजसत्तम
सदा मान्स सहित भिजन देने वाले राज रान्तिदेव कि अतुलित कीर्ति हुयी |
यहाँ पर 'समांसं'  का अर्थ पशुमंस से युक्त उचित नहीं होगा और कारन आगे बताया जाएगा |पुराने समय में सभी शब्दों के विस्तृत अर्थ हुआ करते थे परन्तु आज उनका अर्थ अत्यंत सीमित हो गया है उदहारणतयः 'मृग' का अर्थ पहले सभी वन्य पशुओं के लिए था जबकि वर्त्तमान में यह केवल 'हिरण' के लिए हैं और वृषभ का अर्थ बैल , अपने विषय में सर्वश्रेष्ठ , तेज गति से चलने वाला , शक्तिशंली इस भांति के १६ अर्थ थे परन्तु आज केवल बैल अर्थ लिया जाता है इसी भांति पुराने समय में मांस का अर्थ पशुमांस के साथ साथ गौउत्पाद  अर्थात दूध , दही भी था परन्तु आज वहग केवल पशुमांस का पर्याय बन कर रह गया है | वर्त्तमान पंक्तियों के सन्दर्भ में , राजा रातीदेव के चरित्र ,पंक्तियों के प्रसंग ,गौ की महत्तता तथा तात्कालिक सामाजिक मान्यताओं के कारन यहाँ पर पशुमांस नहीं अपितु दूध यह अर्थ ही उचित होगा |इसके अतिरिक्त 

आलाभ्यंत शतं गवः सहस्त्राणि च विशन्ति
हिंदुत्व विरोधी आलाभ्यंत का अर्थ हिंसा करते हैं 
इसी भांति महाकवि कालिदास र्षित मेघ दूत में रंतिदेव से सम्बंधित पंक्ति
व्यालाम्बेथः सुरभितानाया - आलम्भ्जाम मनिष्यन 
में आलम्भ्जाम का अर्थ हिंसक कहते हैं |
जबकी इसका अर्थ स्पर्श या प्राप्त है और यह परंपरा रही है की दान देने वाला व्यक्ति दान दी जारी  वास्तु को छूकर दान दे देता  है| आलाभ्यंत शब्द का वेदों अन्य स्थानों पर भी इसी भांति प्रयोग हुआ है यथा -
ब्रहामाने ब्राहमण अलाभ्ते - ज्ञान के लिए ज्ञानी को प्राप्त करता है
क्षत्राय राज्न्यम आलाभ्ते -शौर्य के लिए शूर को प्राप्त करता है


तार्किक असम्भाव्यता -


तार्किक रूप से भी पशुओं के वध वाला अर्थ उचित नहीं  लगता है क्यूँकी सर्वप्रथम कभी भी रसोई में पशुओं का वध नहीं किया जाता है | वध स्थल में इतनी अधिक गन्दगी होती है की वहा रसोई से बहुत दूर और यदि संभव हो तो नगर के बाहर  होता है |दूसरी बात हिंदुत्व विरोधी कहते हैं  की मारी गयी गायों के चमड़े से निकले हुए पानी से चर्म्वती नदी बन गयी | एक तो न ही कभी मारे हुए पशुओं का चमडा रसोई में रखा जाता है और न ही गीले चमड़े से निकला हुआ जल इतनी अधिक मात्रा में होता हिया की बहता हुआ दिखाई दे हाँ यदि इसे पशुओं को धोने से बहता हुआ जल कहा जाय तो तर्कसंगत होगा|इसके अतिरिक्त महाभारत में ही सामान प्रसंग में कहा गया है की "रजा रंतिदेव के यज्ञ में प्रेमवश ग्रामो और वनों से पशु स्वयं उपस्थित हो जाते थे "; अब क्या वो अपने वध के लिए आते होंगे ?इसके अतिरिक्त महाभारत में कई स्थानों पर गौ दान के द्वारा कीर्ति प्राप्त होने की बात कही गयी है |


 राजा रान्तिदेव  का चरित्र -
 महाभारत के अनुशासन पर्व के पांच श्लोकों में बहुत से राजाओं के नाम गिनाये गए हैं जिन्होंने कभी मांस नहीं खाया और उसमे राजा रान्तिदेव का भी नाम है | जिस राजा ने कभी मांस न खाया हो क्या उसकी पाकशाला में प्रतिदिन २ हजार पशुओं की हत्या मांस केलिए की जा सकती है ??नारद जी राजा संजय से कहते हैं "संजय !सुना है की संकृति के पुत्र रान्तिदेव भी जीवित न रह सके |उन महामना के दरबार यहाँ दो लाख रसोइये थे जो घर आये हुए अतिथियों को दिन रात  कच्चे और पक्के उत्तम अन्न दिन रात परोसते थे |" , यहाँ पर स्पस्ट है की राजा रान्तिदेव के यहाँ अन्न परोसा जाता था |श्रीमदभगवतमहापुराण के नवे स्कंध में   रजा रंतिदेव की एक कथा आती है की उनको ४८ दिनों तक भूखा रहना पड़ा था |उसके बाद उनको खीर इस्यादी प्राप्त हुआ |जैसे ही वो भोजन करने बैठे एक ब्राहमण आया जिसके भीतर रन्तिदेव ने भगवन को ही देखा और उसका आदर पूर्वक स्वागत किया |जब ब्राहमण खाकर चला गया तब रजा अपने परिवार सहित बचा हुआ भोजन करने के लिए बैठे तभी एक शुद्र अतिथि आ गया| रजा ने उस अतिथि को भी भोजन करवा दिया |जैसे ही शुद्र अतिथि गया एक दूसरा अतिथि कुछ कुत्ते साथ लिए हुए पहुंचा तो रजा रन्तिदेव ने बचा हुआ सम्पूर्ण अन्न दे दिया और भगवन समझ कर प्रणाम किया |अब वे भोजन पकाए हुए बर्तनों का धोवन पानी सकुटुम्ब आपस में बांटकर उस पानी को पीने ही वाले थे की  पानी की खोज करता हुआ एक प्यासा चंडाल आ पहुंचा |रजा ने सारा पानी उसे दे दिया और सृष्टिकर्ता से प्रार्थना की "हे भगवन ! न तो मैं अष्टसीद्धियों से युक्त सरवोछ स्थान चाहता हूँ और न मुक्ति |मैं तो यह चाहता हूँ  की प्राणिमात्र के अन्तः कारन में बैठ कर उनके दुखों को स्वयं सहन कर हूँ जिससे की सभी प्राणी अपने सभी प्रकार के दुखों से बच सकें | " अब आप स्वयं ही निर्णय करें की क्या ऐसा राजा प्रतिदिन ४ हजार पशुओं को भोजन के लिए मरवा सकता है ?


महाभारत का मूल प्रसंग  - 
ये श्लोक महाभारत के वनपर्व के हैं तथा जिसमे एक वधिक द्वारा की गयी हिंसा की निंदा की गयी है |  जिस खंड का उद्देश्य ही वधिक द्वारा की गयी हिंसा की निंदा हो उस के अन्दर चार हजार निर्दोष पशुओं की हत्या करके कीर्ति प्राप्त करने की बात लिखी होना हास्यास्पद है |इस प्रसंग में पुत्र वध से दुखी राजा युधिषठिरको समझाते हुए भगवन श्री कृष्ण कहानते हैं की पूर्व काल के कई यशस्वी राजा भी जीवित नहीं रहे | इसी क्रम में भगवन सही कृष्ण ने कई राजाओं जैसे शिबी आदि के नाम बताये जिन्होंने गौ दान के द्वारा यश अर्जित किया था |कहीं भी गौ हत्या जैसा कोई प्रसंग नहीं है |महाभारत में उसके ठीक पहले वाले अध्याय में "अहिंसा परमो धर्मः" का सन्देश दिया गया है | एक अध्याय में अहिंसा परमो धर्मः का उपदेश देकर अगले ही अध्याय में हिंसा करने वाले राजा की कीर्ति कैसे गायी जा सकती है ?

राजा रान्तिदेव की कीर्ति का वास्तविक कारण - 
राजा रान्तिदेव  की कीर्ति का कारण गायों का दान करना तथा फल फूल द्वारा ऋषियों का स्वागत करना था | राजा रंतिदेव के बारे में कहा गया हिया की वो हजारों गायें और सहस्त्रों निष्क छूकर दान देते थे |निष्क एक राशी होती है जिसमे एक स्वर्ण माला से युक्त वृषभ , उसके पीछे एक हजार गायें और एक सौ आठ स्वर्ण मुद्राएँ होती हैं |राजा रान्तिदेव की रसोई में मणिमाय कुंडल धारण किये हुए रसोइये पुकार पुकार कर कहते थे आप लोग खूब दाल भात खाइए |राजा रन्तिदेव की कीर्ति का वास्तविक कारण यही था | 

चर्मण्वती नदी - हिंदुत्व  के विरोधी एक  श्लोक का अर्थ करते हुए कहते हैं की राजा रंतिदेव की 'रन्तिदेव' की रसोई में दो हजार गायें मारी जाती थी और उनका गीला चमडा रसोई में रखा जाता था |उसका टपका हुआ जो जल बहा वह एक नदी बन गया जो की कर्मवती नदी कहलाया | परन्तु यदी आप महा भारत में उस श्लोक के ठीक पहले वाला श्लोक उठा कर देखें तो आप को  इस तर्क की हास्यास्पदता पता चलेगी जिसमे की कहा गया है की कठोर व्रत का पालन करने वाले राजा रन्तिदेव के यहाँ गावों और जंगल से पशु  यज्ञ के लिए स्वयं उपस्थित हो जाते थे | अब आप स्वयं विचार करिए की क्या वो पशु स्वयं के वध के लिए उपस्थित होते रहे होंगे या दूध देने के लिए ?वास्तव में पशुओं को धोने के लिए जिस नाधि का जल प्रयोग किया जाता था उसका नाम चर्म्वती नदी था जो की आज चम्बल है |

गौ की अवध्यता -
 वेदों में पुराणो में तथा महाभारत में भी सभी स्थानों पर गौ को अवध्य कहा गया है |यहता महाभारात्र शांतिपर्व "श्रुति में गौवों को अवध्य कहा गया है  तो कौन उनके वध का विचार करेगा ? जो गायों और बैलों को मरता है वो महान पाप करता है  " | "अगर पशुओं की हत्या का फल स्वर्ग है तो नरक किन कर्मों का फल है  ? "आरे गोहा नृहा वधो वो अस्तु ऋग्वेद ७ ।५६।१७सदा ही रक्षा के पात्र गाय और बैल को मत मार |सूयवसाद भगवती हि भूया अथो वयं भगवन्तः स्यामअद्धि तर्णमघ्न्ये विश्वदानीं पिब शुद्धमुदकमाचरन्ती ऋग्वेद १।१६४।४०

ऋग्वेद गौ- हत्या को जघन्य अपराध घोषित करते हुए मनुष्य हत्या के तुल्य मानता है और ऐसा महापाप करने वाले के लिये दण्ड का विधान करता है |अघ्न्येयं सा वर्द्धतां महते सौभगाय ऋग्वेद १ ।१६४।२७अघ्न्या गौ- हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य लाती हैं |यदि नो गां हंसि यद्यश्वम् यदि पूरुषंतं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नो सो अवीरहा अर्थववेद १।१६।४यदि कोई हमारे गाय,घोड़े और पुरुषों की हत्या करता है, तो उसे सीसे की गोली से उड़ा दो |


पुरे विवेचन से स्पस्ट है की गाय सदा से हिन्दुओं के लिए पूज्य रही है और ये पुरे हिन्दू समाज को एक सूत्र में पिरोने  का कार्य करती रही है | गौ हत्या और गौमांस खाने के  विचार हिंदुत्व विरोधियों की गाय के पार्टी श्रद्धा को समाप्त करने का मात्र एक कुटिल प्रयास है जिससे की हिंदुत्व की एकता के सूत्र को ही समाप्त किया जा सके परन्तु यह संभव नहीं है | एक हिन्दू की तीन माताएं होती हैं एक जन्म देवे वाली माता , एक पृथ्वी माता और एक गौ माता ; और भला एक माता और पुत्र के स्नेह को काम करने में कौन की कुटिलता सफल हो सकती है ?

साभार  http://nationalizm.blogspot.in/

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