बुधवार, 30 मार्च 2011

आज ही के दिन ललकार उठे थे मंगल पांडे

भारत की आजादी के इतिहास में 29 मार्च 1857 स्वर्णाक्षरों में अंकित है। इसी रोज अंग्रेजों के खिलाफ बागी जिला बलिया के वीर सपूत मंगल पांडे ने बंदूक उठाई और दो अंग्रेजों की हत्या कर प्रथम जंग-ए-आजादी का एलान किया था। अंग्रेजी फौज से बगावत व दो अंग्रेजों की हत्या के जुर्म में हालांकि बाद में उन्हें फांसी के तख्ते पर लटका दिया गया, पर मंगल पांडे की ओर से जलाई गई आजादी की चिंगारी ने आने वाले दिनों में ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत को जला कर राख कर डाला।
बलिया के नगवा गाव का यह सपूत अंग्रेजों की फौज 34 नेटिव इंफैन्ट्री का सिपाही था। नंबर था 1446। बैरकपुर छावनी के मैदान में 29 मार्च, 1857 को मंगल पांडे सुबह सफेद टोप, लाल रंग का बंद कोट व दो पोछिटा धोती पहने बंदूक व तलवार से लैस अपने साथी सिपाहियों को ललकार रहे थे..भाइयो, बैरक से बाहर निकलो, मेरे पास आओ, अंग्रेजों को मार भगाओ और उनका कब्जा खत्म करो। मंगल पांडे की ललकार से चारों ओर सनसनी फैल गई। मैदान में आवाज सुनकर लेफ्टिनेंट जनरल ह्यूंसन पहुंचा तथा जमादार ईश्वरी प्रसाद को मंगल पांडे को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। लेकिन, ईश्वरी प्रसाद ने आदेश को मानने से इनकार कर दिया। इसी बीच घोड़े पर सवार लेफ्टिनेंट जनरल वाफ भी मैदान में पहुंचा। मंगल पांडे ने वाफ पर गोली दाग दी। गोली घोड़े को लगी और वाफ नीचे गिर गया। उसने मंगल पांडे पर गोली चलाई, लेकिन गोली नहीं लगी। इसी दौरान वाफ की मदद के लिए ह्यूंसन आगे बढ़ा। मंगल पांडे ने उस पर गोली दाग दी और ह्यूंसन ढेर हो गया। फिर, मंगल पांडे ने तलवार से वाफ को भी काट डाला। बाद में जब मंगल पांडे को लगा कि उन्हें अंग्रेज गिरफ्तार कर लेंगे तो उन्होंने खुद को गोली मार ली। वह मरे तो नहीं, लेकिन गंभीर रूप से घायल हो गए। अंग्रेज अफसर के आदेश पर मंगल पांडे को न पकड़ने के आरोप में जमादार ईश्वरी प्रसाद को 6 अप्रैल को फासी पर लटका दिया गया। घायलावस्था में मंगल पांडे का सैनिक न्यायालय में कोर्ट मार्शल हुआ और आठ अप्रैल 1857 को बैरकपुर में ही उन्हें फासी दे दी गई। मंगल पांडे को अंग्रेज 7 अप्रैल को ही फासी देना चाहते थे, लेकिन उस दिन स्थानीय कोई भी जल्लाद फासी देने को तैयार नहीं हुआ। अगले दिन चार जल्लाद कोलकता से बुलाए गए, जिन्होंने उन्हें फासी दी। हालाकि, सैनिक न्यायालय ने मंगल पांडे की फासी की तिथि 18 अप्रैल निर्धारित की थी, लेकिन अंग्रेजों ने गुपचुप तरीके से उन्हें दस दिन पहले ही फासी दे दी। इतिहास बताता है कि अंग्रेज 18 अप्रैल तक मंगल पांडे को जिंदा रख कर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। मंगल पांडे की फासी के बाद भारतीय सिपाहियों में आक्रोश बढ़ने लगा। यह मेरठ छावनी में 10 मई 1857 को फूटा। वहां के सिपाही खुद को आजाद घोषित करते हुए दिल्ली की ओर कूच कर गए। इन सिपाहियों ने 11 मई को दिल्ली को अंग्रेजों की दासता से मुक्त करते हुए बहादुर शाह जफर को भारत का बादशाह घोषित कर दिया। बाद में लंदन की महारानी ने भारत से ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता को समाप्त कर हुकूमत की बागडोर अपने हाथ में ले ली। देश आज आजाद है। इसके बावजूद अब तक मंगल पांडे के अवदान का सही मूल्याकन नहीं हुआ। पूर्वाचल में उनके निशान ढूंढ़े नहीं मिलते, यह हमारे लोकतंत्र के शहजादों की पोल खोलते हैं।


साभार: दैनिक जागरण

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