मंगलवार, 31 दिसंबर 2013
सोमवार, 14 अक्टूबर 2013
धन्यवाद
बहुत कृतघता
और विनम्रता से,
मन की ऊंचाइयों और
दिल की गहराइयों से,
मेरा प्रथम धन्यवाद,
उन व्यक्तियों को,
जिन्होंने मुझे जीवन दिया
और मेरे माता-पिता
बनने का दायित्व ग्रहण किया,
संतान बनने का
सौभाग्य मुझे दिया,
रिश्तों का बोध दिलाया,
माँ की महानता और
बाप की विशालता
का अहसास कराया,
पालन पोषण किया,
वह सब कुछ दिया ,
मेरे विचार मे,
जो चाहिए था,
एक अबोध अजनबी अनजान को,
इस संसार मे॰
ममता, प्यार, दुलार,
भाषा और संस्कार,
मानव मूल्य, शिक्षा और सुविचार,
और दिया पूरा घर संसार ॰
धन्यवाद !
मेरे पितामहों, प्रपितामहों और पूर्वजों को भी,
जिनके अंश है मेरी संरचना में भी,
और रोम रोम मे हैं साकार,
उनके
वैज्ञानिक आविष्कार ,
विकाश के प्रयासों की आधारशिला,
जीवन के सूत्र और जीने की कला,
शक्ति, सामर्थ्य और ईश्वर मे आस्था,
प्रकृति से संबंध और धार्मिक व्यवस्था ,
उनकी
सनातन परंपरा अक्षुण्ण और ज्वलंत है,
जो आज भी
हम सब के अंदर जीवंत है ॰॰
धन्यवाद !
परमात्मा का,
ईश्वर का,
या उस अदृश्य शक्ति का,
जिसने हमें वह सब कुछ दिया,
जो कल्पना से परे है,
ये गंगा सी निर्मल, पावन नदियां,
मनमोहक, मनोरम, स्वर्गसम वादियाँ,
ये बादल, ये झरने,
ये असीमित आसमान,
ये हिमालय से पर्वत,
ये मरुस्थल और रेगिस्तान
ये सर्दी, ये गर्मी, ये वर्षा और बसंत,
ये फल, ये फूल, ये पत्ते और अनंत,
ये सूर्य की रोशनी
और चन्दा की चाँदनी,
ये सितारों का उपवन
जैसे झिलमिल छावनी,
ये मनमोहक छटाये,
मलयागिरि से आती
सुंदर सुरभि हवाएँ,
और सावन की घटाएँ,
ये फूलों से पटी घाटियां,
फलों से लदी डालियाँ
ये वनस्पतियाँ,
ये अनोखे दुर्लभ जीव जन्तु
अनगिनत खनिज, अनमोल रत्न,
और ये लहलहाती फसलें,
कहने को हम कुछ भी कह लें,
पर माँ की तरह
सबका पालन करती है
ये पृथ्वी और
अपने आँचल में धारण करती है
पर्वत की ऊंचाई और
सागर की गहराई
मेरे लिए ,
हम सब के लिए,
और समूची मानवता के लिए,
बहुत बहुत धन्यवाद !
इसके लिए ॰॰॰
काश !
सब को हो इसका अहसास ,
कि
कितना कुछ है खास,
हम सबके पास,
पर हम भटकते है मृग की तरह,
उन कामनाओं के लिए
जीवन मे जिंनका कोई अंत नहीं,
खोजते हैं तृष्णा के रास्ते ,
और संतुष्ट होते नहीं ॰
शोक करते हैं, उसके लिए,
जो नहीं होता हमारे लिए निर्धारित,
क्यों बनते हैं हम ?
कृतघ्न, अशिष्ट और अमर्यादित॰
धन्यवाद !
भी नहीं देते उसको,
जिसने इतना कुछ दिया है,
और बदले में कुछ भी नहीं लिया है ॰
भूख का महत्व हो सकता है,
जीवन के लिए,
पर जीवन क्यों अपरिहार्य हो ?
भूख के लिए ॰
हमें सीखना चाहिए,
खुश रहना चाहिए,
जो मिला है, पर्याप्त भले न हो,
पर कम नहीं है, जानना चाहिए,
हम पूर्ण संतुष्ट भले न हों,
पर
धन्यवाद !
तो देना चाहिए ॰ ॰ ॰ ॰
- शिव प्रकाश मिश्रा
हम हिन्दुस्तानी
*******************************************************
शनिवार, 5 अक्टूबर 2013
आप सभी को नव् रात्रि की बधाइयाँ।।
आप सभी को नव् रात्रि की बधाइयाँ।।
मां दुर्गा अपने प्रथम स्वरूप में शैलपुत्री के रूप में जानी जाती हैं।
पर्वतराज हिमालय के घर जन्म लेने के कारण इन्हें शैल पुत्री कहा गया। भगवती
का वाहन बैल है। इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का
पुष्प है। अपने पूर्व जन्म में यह सती नाम से प्रजापति दक्ष की पुत्री थीं।
इनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था। नव दुर्गाओं में शैलपुत्री दुर्गा का
महत्व और शक्तियां अनन्त हैं। नवरात्र के दौरान प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा व
उपासना की जाती है।
वंदे वांच्छितलाभायाचंद्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढांशूलधरांशैलपुत्रीयशस्विनीम्।।
पूणेंदुनिभांगौरी मूलाधार स्थितांप्रथम दुर्गा त्रिनेत्रा।
पहले स्वरूप में मां पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में
विराजमान हैं। नंदी नामक वृषभ पर सवार शैलपुत्री के दाहिने हाथ में त्रिशूल
और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है। शैलराज हिमालय की कन्या होने के कारण
इन्हें शैलपुत्री कहा गया। इन्हें समस्त वन्य जीव-जंतुओं की रक्षक माना
जाता है। दुर्गम स्थलों पर स्थित बस्तियों में सबसे पहले शैलपुत्री के
मंदिर की स्थापना इसीलिए की जाती है कि वह स्थान सुरक्षित रह सके।
वृषारूढांशूलधरांशैलपुत्रीयशस्व
पूणेंदुनिभांगौरी मूलाधार स्थितांप्रथम दुर्गा त्रिनेत्रा।
पहले स्वरूप में मां पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती के रूप में विराजमान हैं। नंदी नामक वृषभ पर सवार शैलपुत्री के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है। शैलराज हिमालय की कन्या होने के कारण इन्हें शैलपुत्री कहा गया। इन्हें समस्त वन्य जीव-जंतुओं की रक्षक माना जाता है। दुर्गम स्थलों पर स्थित बस्तियों में सबसे पहले शैलपुत्री के मंदिर की स्थापना इसीलिए की जाती है कि वह स्थान सुरक्षित रह सके।
जय बाबा बनारस.....
गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013
बच्चे बड़े हो गए
सुबह उगने के साथ ही शुरू हो जाती है,
चहचाहट घोसलें में,
जो मेरे बगीचे में लगा है,
और जिसे मैं देखता हूँ ,
खिड़की से झांक कर हर रोज,
शाम को फिर बढ़ जाती है
हलचल चहचहाने की,
आहट भी नहीं होती है,
रात गहराने की ,
हर दिन ऐसे ही शुरू होता है,
और हर रात भी, इसी तरह,
पता नहीं, इनके पास हैं
कितनी खुशियाँ ?
कितने अनमोल पल ?
कितनी तरंगे ?
कितनी उमंगें ?
उर्जा के पात्र जैसे अक्षय हो गए हैं,
हर चीज को मानो पंख लग गए हैं,
एक जोड़ा चिड़ियों का और
उनके दो छोटे बच्चे,
यही सब उनका पूरा संसार बन गए हैं .
और देतें हैं अविरल, अतुल अहसास ,
जैसे श्रृष्टि का सृजन और क्रमिक विकाश ,
हर तरफ हरियाली, मनमोहक हवाएं
स्वच्छ खुला नीला आकाश,
अबोध विस्मय, तार्किक तन्मय ,
संयुक्त आल्हाद और अति विश्वास,
स्वयं का ,
प्रकृति का,
या परमात्मा का,
पता नहीं, पर
न गर्मी का गम, न चिंता सर्दी की,
न बर्षा का भय, न आशंका अनहोनी की,
व्यस्त और मस्त हरदम,
बच्चों के साथ,
जैसे बच्चे ही जीवन है,
उनका,
बच्चों का पालन पोषण,
हर पल ध्यान रखना
बड़े से बड़ा करना,
लक्ष्य है उनके जीवन का,
सोना, जागना, खेलना, कूदना,
उनके साथ,
खुश रखना,
खुश रहना साथ साथ॰
उनके बचपन में समाहित करना,
अपना जीवन,
पुनर्परिभाषित और पुनर्निर्धारित करना,
खुद का बचपन,
कितने ही मौसम आये, गए,
और
समय के बादल बरस कर चले गए,
खिड़की से बाहर बगीचे में,
अब, जब मै झांकता हूँ,
तो पाता हूँ,
घोंसले हैं, कई, आज भी,
और चहचाहट भी,
कुछ उसी तरह,
पर सब कुछ सामान्य नहीं है,
उस घोंसले में,
जिसे मै लम्बे समय से देखता आया हूँ,
जिसकी चहचाहट शामिल थी,
मेरी दिनचर्या में,
जिसकी यादें आज भी रची बसीं है,
मेरे अंतर्मन में,
ऐसा लगता है,
जैसे मै स्वयं अभिन्न हिस्सा हूँ,
उनके जीवन का,
और उस घोंसले का,
या वे सब और वह घोंसला,
हिस्सा हैं,
मेरे जीवन का.
आज भी जीवित है,
चिड़ियों का वह प्रौढ़ जोड़ा,
और रहता है,
उसी घोंसले में,
जहाँ अब चहचाहट नहीं है,
कोई हलचल भी नहीं है,
चलते, फिरते,
उठते बैठते,
झांकता हूँ मैं,
बार बार उसी घोंसले में,
जहाँ अब बच्चे नहीं दिखते॰
प्रश्न वाचक निगाहों से पूंछता हूँ मैं,
जब इस जोड़े से,
जो मिलते हैं यहाँ वहां बैठे हुए
बहुत शान्त और उदास से,
उनकी खामोश निगाहें,
बड़ी बेचैनी से कहती हैं
“बच्चे बड़े हो गए",
"बहुत दूर हो गए",
"अब तो उनकी चहचाहट भी यहाँ नहीं आती ”
बहुत विचलित होता हूँ,
और सोचता हूँ,
मैं,
जैसे कल की ही बात है,
सारा घटनाक्रम आत्मसात है,
पर समय को भी कोई संभाल सका है भला ?
पता ही नहीं चला.....
कब ?
बच्चे बड़े हो गए.
**************************
- - शिव
प्रकाश मिश्र
सदस्यता लें
संदेश (Atom)