पूर्वी उत्तर प्रदेश के साथ सरकार ने नाइंसाफी की है। बजट में इस बार भी पूर्वांचल छला गया है। बार बार छला जाना यहां की नियति हो गयी है। यह कोई नया खेल नहीं है। अंग्रेजों के जमाने से पूर्वांचल उपेक्षित है। यहां के लोगों के प्रतिरोध की ताकत अंग्रेजों को डराती है। आजादी बाद इसी ताकत से काले अंग्रेज भी डर रहे हैं। यही वजह है कि पूर्वांचल की गाडी विकास की पटरी पर दौड नहीं पायी। यह तो एक अदद लल्लू स्टेशन की तरह एक बार छूटा तो बार बार छूटने की रवायत बन गया है।
कबीर, गौतम बुद़ध और गुरु गोरक्ष के इस पूर्वांचल में अब दुख ही दुख है। इसके माथे पर कहीं संजरपुर है तो कहीं गरीबी, बेकारी और भुखमरी का कलंक। कभी आपने सोचा क्यों छला जा रहा है, यह इलाका, क्यों उपेक्षित कर दिया गया है पूर्वांचल। बात शायद आप सबकी समझ में आये लेकिन इसकी जड आजादी की लडाई से जुडी है। तब जब पहली बार स्वाधीनता संग्राम की नींव पडी तो बलिया के मंगल पाण्डेय उसकी पहली ईंट बन गये। वीर कुंवर सिंह का बलिया से लेकर आजमगढ तक का संघर्ष भी अंग्रेजों के वंशजों को भी नहीं भूला होगा। बाद में जब क्रांति शुरू हुई तब भी पूर्वांचल सबसे आगे था। 6 फरवरी 1922 को गांधी जी के असहयोग आंदोलन के दौरान चौरीचौरा थाना फूंका गया तब पूरी दुनिया यहां की क्रांति से वाकिफ हुई। बलिया के चित्तू पाण्डेय ने अपने दम पर अंग्रेजों के साम्राज्य में सूरज न डूबने के रिकार्ड को ध्वस्त कर बलिया को आजाद करा दिया था। उसके पहले गोरखपुर के बंधु सिंह की कुर्बानी इतिहास का दस्तावेज बन गयी थी। आजादी की लडाई में उदाहरण तो इतने हैं कि कई किताबें बन जायेंगी। पिपरीडीह ट्रेन डकैती ने आजादी की लडाई के लिए खजाने का बंदोबस्त किया। यह सब कुछ उन पूर्वजों की गौरवगाथा है जो गुलामी की बेडियों को काटकर आजाद होने का ख्वाब देखते थे। अब उनकी अतप्त आत्मा है। उन शहीदों की यादें हैं लेकिन इन सबके बावजूद कुर्बानी की कोई कीमत नहीं है। 1901 में अंग्रेजों ने इस इलाके को लेबर एरिया घोषित कर यहां के लोगों से एग्रीमेंट किया। गिरमिटिया मजूदरों के रूप में यहां के लोग पिफजी, सूरीनाम, गुयाना, मारीशस, त्रिनिदाद और टोबैको जैसे देशों में गये। वे लोग अब वहां शासन कर रहे हैं लेकिन उनके भाई बंधु आज भी गिरमिटया मजूदरी के कलंक से उबर नहीं पाये हैं। आज भी मजूरी के सीजन में कुछ लोग गांव लौट आते और िफर वे दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता, हरियाणा की ओर रुख कर देते हैं। तब घरों से रेलिया बैरी पिया को लिये जाय रे::::: जैसे विरह गीत गूंजने लगते हैं। तब वेदना अंखुवाती है और हर घर की दुल्हनों के ख्वाबों की सरहद दिल्ली, मुम्बई और कलकत्ता हो जाती है। दुख तो तब बढ जाता है जब परदेस गये उनके पिया एड़स लेकर लौटते हैं और जवानी तिल तिल कर मरने लगती है।
यह सब क्यों हुआ। आजादी के बाद भी यहां की तस्वीर क्यों नहीं बदली। 1952 में बने के:एम: पणिक्कर आयोग की रपटों को क्यों दरकिनार कर दिया गया। गाजीपुर के सांसद विश्वनाथ गहमरी की दर्द भरी अपीलों पर पटेल आयोग बनाकर उसकी सिफारिशों को क्यों उपेक्षित कर दिया गया। सेन कमेटी की रिपोर्ट कहां गुम हो गयी। सवाल दर सवाल हैं। आज बस पूर्वांचल के दुखों को लेकर अलग पूर्वांचल राज्य का मुद़दा गरमाया जा रहा है। पर यह मुद़दा कौन गरमा रहा है। हाशिये पर गये हुये लोगों के लिए ही पूर्वांचल राज्य है। जो भी मुख्य धारा में रहा उसने कभी पूर्वांचल राज्य के मुद़दे पर अपनी जुबान नहीं खोली। अब अमर सिंह पूर्वांचल राज्य को लेकर उम्मीदें जगा रहे हैं। पूर्व केन्द्रीय मंत्री कल्पनाथ राय, रामधारी शास्त्री, सुरेश यादव, पूर्व राज्यपाल मधुकर दिघे, शतरूद्र प्रकाश, अंजना प्रकाश जैसे न जाने कितने लोग इस मुद़दे के इतिहास बने गये हैं। अभी भविष्य बनने के लिए कुछ स्वयंभू संगठन भी लगे हुये हैं। पर पूर्वांचल की जनता इस छद़म युदध में शामिल नहीं हो रही है। उत्तराखण्ड और झारखण्ड की तरह राज्य बंटवारे को लेकर सडकों पर कभी कोई गूंज सुनायी नहीं दे रही है।
चुनावों के दौरान इतिहास के पन्ने पलटने पर हमें तो हमेशा यही लगा कि यहां के लोगों के प्रतिरोध की ताकत ही उनके विकास की सबसे बडी दुश्मन बनी। उन दिनों जब पण्डित जवाहर लाल नेहरू की अपील जनमानस पर अपना असर छोडती थी उन दिनों भी पूर्वांचल में विरोध की आवाज का मतलब था। पडरौना में नेहरू की अपील के खिलाफ जनता ने सोशलिस्ट पार्टी के रामजी वर्मा को 1952 में अपना सांसद बना दिया तो यह इलाका उनकी नजरों में चुभने लगा। हमेशा प्रतिपक्ष को मुखर करने में यहां के लोगों ने अपनी ताकत दी। सत्ता में पैर जमाने के लिए भी खूब मदद की लेकिन यहां का तेवर सत्ता को रास नहीं आया। चाहे सपा हो या बसपा, जब उनके पैर जमे तो जमीन पूर्वांचल की ही थी। पूर्वांचल ने सबको सिर माथे पे बिठाया लेकिन किसी ने यहां की तकदीर और तस्वीर नहीं बदली। पूर्वांचल ने जब जी चाहा लोगों को ताकत दी और मन से कोई उतरा तो उसे सिंहासन से नीचे उतार दिया। इस डर ने यहां भेदभाव के बीज बोने शुरू कर दिये। सियासतदारों ने पूर्वांचल को अपने अपने लिए एक प्रयोगशाला बना दिया। लिहाजा बहुत ही ताकतवर पूर्वांचल अपने प्रतिरोध को सही दिशा नहीं दे पाया। सियासतदारों ने तो इसे जाति, धर्म और अपराध के खांचों में बांट दिया। टुकडों-टुकडों में बंटे लोग राजनीति के औंजार बनते रहे और उनकी अपनी पहचान नहीं बन पायी। अब यहां सिर्फ दुख ही दुख है। यहां की प्रतिभाओं को भी उचित प्लेटफार्म नहीं मिल रहा है।
उद़योग के क्षेत्र में तो यहां की हालत वैसे ही पतली है। बिजली नहीं है। सडकें टूटी हैं। नदियां सिर्फ उफनाती हैं। नहरे सूख गयी हैं। पानी का स्तर घटने लगा है। दर्द एक हो तब तो बताएं यहां तो घाव ही घाव है किसे किसे दिखायें। पूर्वांचल में 1903 में देवरिया जिले के प्रतापपुर में गांधी जी की पहल पर एक औद़योगिक घराने ने चीनी मिल की स्थापना की। बाद के दिनों में यहां चीनी मिलों की संख्या बढकर 26 हो गयी। पर गन्ना किसानों की उपेक्षा, गन्ना मूल्य का बकाया और सरकारी उत्पीडन से चीनी मिलों ने दम तोडना शुरू कर दिया। अब तो सिर्फ 13 चीनी मिलें ही यहां रह गयी हैं जो चालू हालत में हैं मगर वह भी बीमार हैं। गोरखपुर का फर्टिलाइजर कारखाना 1991से बंद है। हम हमेशा सुनते आ रहे हैं कि कारखाना चालू होगा। पर उसकी उम्मीद नजर नहीं आती। नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री होकर गोरखपुर आये थे। उन्होंने एलान किया- फर्टिलाइजर कारखाना चालू होगा , जनता की उम्मीदों को पंख लग गये। लगा कि अब गोरखपुर गुलजार हो जायेगा, लेकिन सपना सपना ही रह गया। इस सपने को देवगौडा ने भी जगाया। गुजराल, अटल विहारी वाजपेयी और पिछले चुनाव में मनमोहन सिंह ने भी इसे हवा दी। रामविलास पासवान तो ऐसे बोलते थे जैसे उनका विमान उडा और कारखाने के लिए कार्य शुरू हो गया। कुछ नहीं हुआ। नेपाल की जलकुण्डी और करनाली परियोजना भी अभी तक वैसे ही है। हर साल आने वाली बाढ में पूर्वांचल और बिहार बर्बाद होता है। सैकडो एकड भूमि उसर हो जाती है। हजारों परिवार बेघर हो जाते हैं लेकिन सत्ता प्रतिष्ठानों को इसकी पिफक्र नहीं है। लोग तो मस्त हैं और नेपाल की सरहद भारत के लिए असुरक्षित होती जा रही है। जाली नोटों के कारोबार ने जडे खोखली कर दी हैं, अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। लगे हाथ यहां के बेरोजगार बिगड रहे हैं। मोबाइल, बाइक और असलहों की चाह ने युवाओं की दिशा बदल दी। जाली नोटों के कारोबार में वे तस्करों के हाथों का खिलौना बन गये हैं। इश्कियां जैसे सिनेमा में विशाल भारद्वाज यहां की स्थिति दिखाते हैं तो लोगों को तकलीफ होती है। सिनेमा के पोस्टर फाडे जाते हैं लेकिन कभी उस दर्द को कोई शिद़दत से नहीं समझ सका है।
आभार- आनंद राज जागरण जंक्सन
कबीर, गौतम बुद़ध और गुरु गोरक्ष के इस पूर्वांचल में अब दुख ही दुख है। इसके माथे पर कहीं संजरपुर है तो कहीं गरीबी, बेकारी और भुखमरी का कलंक। कभी आपने सोचा क्यों छला जा रहा है, यह इलाका, क्यों उपेक्षित कर दिया गया है पूर्वांचल। बात शायद आप सबकी समझ में आये लेकिन इसकी जड आजादी की लडाई से जुडी है। तब जब पहली बार स्वाधीनता संग्राम की नींव पडी तो बलिया के मंगल पाण्डेय उसकी पहली ईंट बन गये। वीर कुंवर सिंह का बलिया से लेकर आजमगढ तक का संघर्ष भी अंग्रेजों के वंशजों को भी नहीं भूला होगा। बाद में जब क्रांति शुरू हुई तब भी पूर्वांचल सबसे आगे था। 6 फरवरी 1922 को गांधी जी के असहयोग आंदोलन के दौरान चौरीचौरा थाना फूंका गया तब पूरी दुनिया यहां की क्रांति से वाकिफ हुई। बलिया के चित्तू पाण्डेय ने अपने दम पर अंग्रेजों के साम्राज्य में सूरज न डूबने के रिकार्ड को ध्वस्त कर बलिया को आजाद करा दिया था। उसके पहले गोरखपुर के बंधु सिंह की कुर्बानी इतिहास का दस्तावेज बन गयी थी। आजादी की लडाई में उदाहरण तो इतने हैं कि कई किताबें बन जायेंगी। पिपरीडीह ट्रेन डकैती ने आजादी की लडाई के लिए खजाने का बंदोबस्त किया। यह सब कुछ उन पूर्वजों की गौरवगाथा है जो गुलामी की बेडियों को काटकर आजाद होने का ख्वाब देखते थे। अब उनकी अतप्त आत्मा है। उन शहीदों की यादें हैं लेकिन इन सबके बावजूद कुर्बानी की कोई कीमत नहीं है। 1901 में अंग्रेजों ने इस इलाके को लेबर एरिया घोषित कर यहां के लोगों से एग्रीमेंट किया। गिरमिटिया मजूदरों के रूप में यहां के लोग पिफजी, सूरीनाम, गुयाना, मारीशस, त्रिनिदाद और टोबैको जैसे देशों में गये। वे लोग अब वहां शासन कर रहे हैं लेकिन उनके भाई बंधु आज भी गिरमिटया मजूदरी के कलंक से उबर नहीं पाये हैं। आज भी मजूरी के सीजन में कुछ लोग गांव लौट आते और िफर वे दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता, हरियाणा की ओर रुख कर देते हैं। तब घरों से रेलिया बैरी पिया को लिये जाय रे::::: जैसे विरह गीत गूंजने लगते हैं। तब वेदना अंखुवाती है और हर घर की दुल्हनों के ख्वाबों की सरहद दिल्ली, मुम्बई और कलकत्ता हो जाती है। दुख तो तब बढ जाता है जब परदेस गये उनके पिया एड़स लेकर लौटते हैं और जवानी तिल तिल कर मरने लगती है।
यह सब क्यों हुआ। आजादी के बाद भी यहां की तस्वीर क्यों नहीं बदली। 1952 में बने के:एम: पणिक्कर आयोग की रपटों को क्यों दरकिनार कर दिया गया। गाजीपुर के सांसद विश्वनाथ गहमरी की दर्द भरी अपीलों पर पटेल आयोग बनाकर उसकी सिफारिशों को क्यों उपेक्षित कर दिया गया। सेन कमेटी की रिपोर्ट कहां गुम हो गयी। सवाल दर सवाल हैं। आज बस पूर्वांचल के दुखों को लेकर अलग पूर्वांचल राज्य का मुद़दा गरमाया जा रहा है। पर यह मुद़दा कौन गरमा रहा है। हाशिये पर गये हुये लोगों के लिए ही पूर्वांचल राज्य है। जो भी मुख्य धारा में रहा उसने कभी पूर्वांचल राज्य के मुद़दे पर अपनी जुबान नहीं खोली। अब अमर सिंह पूर्वांचल राज्य को लेकर उम्मीदें जगा रहे हैं। पूर्व केन्द्रीय मंत्री कल्पनाथ राय, रामधारी शास्त्री, सुरेश यादव, पूर्व राज्यपाल मधुकर दिघे, शतरूद्र प्रकाश, अंजना प्रकाश जैसे न जाने कितने लोग इस मुद़दे के इतिहास बने गये हैं। अभी भविष्य बनने के लिए कुछ स्वयंभू संगठन भी लगे हुये हैं। पर पूर्वांचल की जनता इस छद़म युदध में शामिल नहीं हो रही है। उत्तराखण्ड और झारखण्ड की तरह राज्य बंटवारे को लेकर सडकों पर कभी कोई गूंज सुनायी नहीं दे रही है।
चुनावों के दौरान इतिहास के पन्ने पलटने पर हमें तो हमेशा यही लगा कि यहां के लोगों के प्रतिरोध की ताकत ही उनके विकास की सबसे बडी दुश्मन बनी। उन दिनों जब पण्डित जवाहर लाल नेहरू की अपील जनमानस पर अपना असर छोडती थी उन दिनों भी पूर्वांचल में विरोध की आवाज का मतलब था। पडरौना में नेहरू की अपील के खिलाफ जनता ने सोशलिस्ट पार्टी के रामजी वर्मा को 1952 में अपना सांसद बना दिया तो यह इलाका उनकी नजरों में चुभने लगा। हमेशा प्रतिपक्ष को मुखर करने में यहां के लोगों ने अपनी ताकत दी। सत्ता में पैर जमाने के लिए भी खूब मदद की लेकिन यहां का तेवर सत्ता को रास नहीं आया। चाहे सपा हो या बसपा, जब उनके पैर जमे तो जमीन पूर्वांचल की ही थी। पूर्वांचल ने सबको सिर माथे पे बिठाया लेकिन किसी ने यहां की तकदीर और तस्वीर नहीं बदली। पूर्वांचल ने जब जी चाहा लोगों को ताकत दी और मन से कोई उतरा तो उसे सिंहासन से नीचे उतार दिया। इस डर ने यहां भेदभाव के बीज बोने शुरू कर दिये। सियासतदारों ने पूर्वांचल को अपने अपने लिए एक प्रयोगशाला बना दिया। लिहाजा बहुत ही ताकतवर पूर्वांचल अपने प्रतिरोध को सही दिशा नहीं दे पाया। सियासतदारों ने तो इसे जाति, धर्म और अपराध के खांचों में बांट दिया। टुकडों-टुकडों में बंटे लोग राजनीति के औंजार बनते रहे और उनकी अपनी पहचान नहीं बन पायी। अब यहां सिर्फ दुख ही दुख है। यहां की प्रतिभाओं को भी उचित प्लेटफार्म नहीं मिल रहा है।
उद़योग के क्षेत्र में तो यहां की हालत वैसे ही पतली है। बिजली नहीं है। सडकें टूटी हैं। नदियां सिर्फ उफनाती हैं। नहरे सूख गयी हैं। पानी का स्तर घटने लगा है। दर्द एक हो तब तो बताएं यहां तो घाव ही घाव है किसे किसे दिखायें। पूर्वांचल में 1903 में देवरिया जिले के प्रतापपुर में गांधी जी की पहल पर एक औद़योगिक घराने ने चीनी मिल की स्थापना की। बाद के दिनों में यहां चीनी मिलों की संख्या बढकर 26 हो गयी। पर गन्ना किसानों की उपेक्षा, गन्ना मूल्य का बकाया और सरकारी उत्पीडन से चीनी मिलों ने दम तोडना शुरू कर दिया। अब तो सिर्फ 13 चीनी मिलें ही यहां रह गयी हैं जो चालू हालत में हैं मगर वह भी बीमार हैं। गोरखपुर का फर्टिलाइजर कारखाना 1991से बंद है। हम हमेशा सुनते आ रहे हैं कि कारखाना चालू होगा। पर उसकी उम्मीद नजर नहीं आती। नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री होकर गोरखपुर आये थे। उन्होंने एलान किया- फर्टिलाइजर कारखाना चालू होगा , जनता की उम्मीदों को पंख लग गये। लगा कि अब गोरखपुर गुलजार हो जायेगा, लेकिन सपना सपना ही रह गया। इस सपने को देवगौडा ने भी जगाया। गुजराल, अटल विहारी वाजपेयी और पिछले चुनाव में मनमोहन सिंह ने भी इसे हवा दी। रामविलास पासवान तो ऐसे बोलते थे जैसे उनका विमान उडा और कारखाने के लिए कार्य शुरू हो गया। कुछ नहीं हुआ। नेपाल की जलकुण्डी और करनाली परियोजना भी अभी तक वैसे ही है। हर साल आने वाली बाढ में पूर्वांचल और बिहार बर्बाद होता है। सैकडो एकड भूमि उसर हो जाती है। हजारों परिवार बेघर हो जाते हैं लेकिन सत्ता प्रतिष्ठानों को इसकी पिफक्र नहीं है। लोग तो मस्त हैं और नेपाल की सरहद भारत के लिए असुरक्षित होती जा रही है। जाली नोटों के कारोबार ने जडे खोखली कर दी हैं, अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। लगे हाथ यहां के बेरोजगार बिगड रहे हैं। मोबाइल, बाइक और असलहों की चाह ने युवाओं की दिशा बदल दी। जाली नोटों के कारोबार में वे तस्करों के हाथों का खिलौना बन गये हैं। इश्कियां जैसे सिनेमा में विशाल भारद्वाज यहां की स्थिति दिखाते हैं तो लोगों को तकलीफ होती है। सिनेमा के पोस्टर फाडे जाते हैं लेकिन कभी उस दर्द को कोई शिद़दत से नहीं समझ सका है।
आभार- आनंद राज जागरण जंक्सन
पूर्वांचल की दुर्गति का विस्तृत विवेचन । कभी तो कोई समझेगा इसे ।
जवाब देंहटाएंwakai chinta ka bisya hai aur saath hi taklif deh bhi.kafi kuchh jaanne ko mila yahan .badhiya post .
जवाब देंहटाएंकोई नहीं समझ रहा पूर्वांचल का दुख ....
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा मुद्दा उठाया आपने -------
सार्थक लेखन के साथ विचारणीय प्रश्न- भी ..
Kabhi n kabhi wah subah jarur hogi!
जवाब देंहटाएंbahut badiya saarthak prastuti..aabhar
humen is baare me itni jankari nahi thi dost vicharniy prastuti
जवाब देंहटाएंkayu chinta katre ho dost kabhi to vo din aayega jab uski aawaz bhi koi n koi sun payega
Poorvanchal ki jaisi durdasha poore desh aur duniya ki ho rahi hai.Kahin na kahin hum sab log hi iske zimmedar hain.Pata nahi kis raste par ja rahi hai ye duniya.
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