शनिवार, 17 फ़रवरी 2024

किसान आन्दोलन संस्करण दो

 

पिछले किसान आंदोलन की कड़वी यादें अभी भूल भी नहीं पाए थे कि दूसरा किसान आंदोलन शुरू हो गया है. पिछले आंदोलन के दौरान लगभग 13 महीने तक दिल्ली को घेर कर बैठे रहे आंदोलनकारियों कथित किसानों ने दिल्लीवासियों का जीना मुश्किल कर दिया था. वित्तीय रूप से राष्ट्र को कितनी क्षति हुई थी, इसकी गणना सरकार ने आवश्यक होगी लेकिन खुलासा नहीं किया था. यह समझना मुश्किल नहीं है कि आर्थिक रूप से देश का कितना बड़ा नुकसान हुआ होगा. 26 जनवरी को लाल किले पर जो उपद्रव हुआ था उसे देख कर कोई भी कह सकता है कि वे किसान नहीं हो सकते. वह आंदोलन बहुत बड़ा षडयंत्र था और उसमें भारत विरोधी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय शक्तियां सक्रिय थी और पैसा पानी की तरह बहाया गया था. हमेशा की तरह सर्वोच्च न्यायालय ने भी ऐसे संवेदनशील और राष्ट्रीय हित के मामले में अपनी भूमिका का ईमानदारी से निर्वहन नहीं किया था. अंततः मोदी सरकार को राष्ट्रहित में बनाए गए तीनो किसान कानूनों को वापस लेना पड़ा था. इससे छोटे किसानों और खेतिहर मज़दूरों का बहुत नुकसान हुआ.

पिछले आंदोलन की तर्ज पर ही आंदोलन का यह द्वितीय संस्करण दिल्ली को घेरकर राजनीतिक बवंडर उत्पन्न करने के लिए शुरू किया गया लगता है. चूंकि लोकसभा चुनाव 2024 सिर पर है, मंदिर निर्माण से उपजे राममय वातावरण में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अबकी बार 400 के पार का दावा करते, विपक्षी गठबंधन को ध्वस्त करते हुए आगे बढ़ रहे हों और अचानक किसान रास्ता रोककर खड़े हो जाए. इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि इसका राजनैतिक निहितार्थ है. पिछली बार का आंदोलन पंजाब में शुरू हुआ था और राज्य सरकार से संघर्ष के बाद रेल रोको आंदोलन करता हुआ दिल्ली पहुंचा था. अब की बार पंजाब सरकार ने तमाम सुविधाएं उपलब्ध कराते हुए सीधे दिल्ली का रास्ता दिखा दिया. पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है और आगामी चुनावों को देखते हुए वे कुछ भी कर सकते हैं. हरियाणा की सीमा पर किसानों को रोके जाने पर पंजाब सरकार ने तीखी प्रतिक्रिया देते हुए हरियाणा और केंद्र सरकार की निंदा करते हुए कहा कि किसान लोकतांत्रिक तरीके से अपनी मांगों के समर्थन में विरोध करने के लिए दिल्ली जा रहे हैं सरकार को उनकी मांगों पर विचार करना चाहिए.

दूसरे संस्करण के इस आंदोलन में अंतर यह है कि पिछले आंदोलन में भाग लेने वाले सभी संगठन इस इस बार शामिल नहीं है. हरित क्रांति के जनक कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन तथा पूर्व प्रधानमंत्री और किसानों के मसीहा कहे जाने वाले चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न सम्मान दिए जाने की पृष्ठभूमि में राकेश टिकैत के नेतृत्व वाली भारतीय किसान यूनियन और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा में सक्रिय अधिकांश किसान यूनियन इसमें शामिल नहीं है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के किसान तथा खाप पंचायतें इस आंदोलन का विरोध भी कर रही हैं. इसलिए यह आन्दोलन पंजाब के किसानो का और उस पर भी कुछ किसान यूनियनों का आन्दोलन है.

  1. इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि देश में कई दशकों से अधिकांश छोटे और मझोले किसानों की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है और इसमें सुधार होना तो दूर वर्ष दर वर्ष स्थिति और खराब होती जा रही है. वैसे तो किसानों की आर्थिक स्थिति में राज्यवार अंतर हो सकता है लेकिन सबसे अधिक खराब स्थिति उत्तर प्रदेश बिहार और उड़ीसा के किसानों की है. समस्या केवल उपज की उचित कीमत ही नहीं बल्कि सिंचाई के साधन, भूमि सुधार, छोटी जोत, अवैज्ञानिक मूलभूत ढांचा, खाद और बीज की बढ़ती कीमतें भी हैं. उत्तर प्रदेश बिहार और उड़ीसा में कृषि मज़दूरों की अनुपलब्धता भी एक बहुत बड़ी समस्या बन गई है और उसका कारण है इन राज्यों के कृषि श्रमिकों का पंजाब और हरियाणा के लिए पलायन. रही सही कसर मनरेगा ने पूरी कर दी, जिसके कारण श्रमिक मनरेगा में काम करते हैं और जब वहाँ काम नहीं मिलता तो शहर में मजदूरी के लिए चले जाते हैं. कम जोत वालों को बटाईदार भी नहीं मिलते इसलिए ये छोटे और मझोले किसान किसी तरह ट्रैक्टर से अपने खेतों की जुताई बुआई करवा कर जीविका चलाते हैं. न्यूनतम समर्थन मूल्य से तो इनका दूर दूर का रिश्ता ही नहीं जिसका सबसे अधिक फायदा पंजाब और उसके बाद हरियाणा को मिलता है इसलिए इसकी मांग हरियाणा और पंजाब के किसान ही करते हैं जहाँ बिचौलियों से मिलीभगत करके इसके दुरुपयोग का लंबा इतिहास है.  

आंदोलनकारी कथित किसानों की मांगें उचित भले ही न हो लेकिन जो समय उन्होंने चुना है जो शायद पूरी तरह से उचित है जिसे देख कर यह समझना मुश्किल नहीं है कि इसमें राजनीतिक तड़का लगा है. उनकी मांगो की सूची देख कर भी यह समझना मुश्किल नहीं है कि इसमें मोदी सरकार को शर्मसार करके राजनीतिक फायदा उठाने की मंशा है. प्रमुख मांगें इस प्रकार हैं, स्वामीनाथन रिपोर्ट पूरी तरह लागू की जाए, सभी फसलें एमएसपी पर खरीदी जाएं, एमएसपी गारंटी कानून बनाया जाएं और स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार फसलों के भाव तय किए जाएं, किसानों और मजदूरों की पूर्ण कर्जमाफी की जाए, भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 को पूरे देश में फिर से लागू किया जाए, भूमि अधिग्रहण से पहले किसानों की लिखित सहमति और कलेक्टर रेट से 4 गुना मुआवजा देने की व्‍यवस्‍था हो, लखीमपुर खीरी नरसंहार के दोषियों को सजा और पीड़ित किसानों को न्याय मिले, विश्व व्यापार संगठन से भारत बाहर आए, सभी मुक्त व्यापार समझौतों पर रोक लगाई जाए, किसानों और खेत मजदूरों को रुपया 10,000 प्रतिमाह की पेंशन दी जाए, दिल्ली किसान आंदोलन में शहीद हुए किसानों के परिजनों को एक लाख का मुआवजा और नौकरी दी जाए, विद्युत संशोधन विधेयक 2020 को रद्द किया जाए, मनरेगा से प्रति वर्ष 200 दिन का रोजगार, 700 रुपये का मजदूरी भत्ता दिया जाए, मनरेगा को खेती के साथ जोड़ा जाए.

आंदोलनकारियों की उपरोक्त मांगे “मैया मै तो चंद्र खिलौना लैहों” जैसी है जिन्हें पूरा करना किसी भी सरकार के लिए बिना राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को अस्तव्यस्त किए संभव नहीं लगता. राहुल गाँधी ने अपनी भारत जोडो न्याय यात्रा के दौरान एक सभा में यह घोषणा की है कि यदि उनकी सरकार बनती है तो वह न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार प्रदान करेंगे और अन्य मांगों को भी यथावत लागू कर देंगे. देश के वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए पूरी दुनिया को यह बात मालूम है लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सरकार बनाने नहीं जा रही इसलिए राहुल गाँधी ने इन मांगों पर बिना गंभीरतापूर्वक विचार किए हुए हाँमी भर दी है. कांग्रेस इसके पहले भी कई राज्यों के चुनाव में लोक लुभावन घोषणाएं करके हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक ओर तेलंगाना जैसे राज्यों की अर्थव्यवस्था को लगभग चौपट करने का काम कर चुकी है, जहाँ विकास के कार्य लगभग ठप हो गए हैं और कर्मचारियों के वेतन भुगतान में समस्या आने लगी है.

सभी फसलों पर एमएसपी गारंटी कानून लागू करना भारत में कृषि अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से चौपट करना होगा क्योंकि इसके बाद कृषि सुधार लागू करने के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं बचेगी. मनरेगा की दैनिक मजदूरी बढ़ाकर ₹700 करना और एक वर्ष में 200 दिनों की रोज़गार गारंटी देना वर्तमान उपलब्ध संसाधनो के अंतर्गत बिना अन्य कार्यों को रोके करना मुश्किल है इस समय इस योजना में वर्ष में 100 दिन रोजगार और मजदूरी विभिन्न राज्यों में रु 200 से लेकर रु 350 के बीच है. वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए मनरेगा के लिए 86,000 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है यदि ये मांगे मान ली जाए तो 7 से 8 लाख करोड़ रूपये का आवंटन चाहिए. हो सकता है कि इससे उप्र, ओडिशा और बिहार से पंजाब और हरियाणा आने वाले कृषि मजदूरों के आने का सिलसिला रुक जाय तो पंजाब और हरियाणा का क्या होगा. उप्र, बिहार और ओडिशा में जहाँ खेतिहर मजदूर नहीं मिलते वहा भी समस्या बढ़ जायेगी. पूरे देश में कृषि उत्पादन की लागत और भी बढ़ जायेगी जिससे एमएसपी न पाने वाले किसानो की हालत और ख़राब हो जायेगी.

देश में लगभग 15 करोड़ लोग 60 वर्ष से ऊपर हैं, जिनमे से दो तिहाई (10 करोड़) गावों में रहते हैं यदि ग्रामीणों किसान और मजदूरों को प्रतिमाह रु10000 पेंशन दी जाए तो प्रति वर्ष 11-12 लाख करोड़ रूपये चाहिए. गारंटीड एमएसपी लागू करने के लिए लगभग 10 लाख करोड़ रूपये की अतरिक्त व्यवस्था करनी होगी. अगर मनरेगा, पेंशन और गारंटीड एमएसपी पर खर्च देखा जाय तो यह 30 लाख करोड़ रूपये प्रतिवर्ष बैठता है जिसके सापेक्ष वर्तमान वित्तीय वर्ष 2023-24 में भारत सरकार की कुल राजस्व प्राप्तियां 27 लाख करोड़ रूपये हैं और खर्च 45 लाख करोड़ रूपये है. अगर सरकार इन आंदोलनरत कथित किसानों की मांगे मान ले तो वर्तमान राजस्व प्राप्तियों से तो कार्य पूरा नहीं हो सकता है. सोचिये देश में अन्य कार्य कैसे होंगे.

आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि मोदी सरकार इस रूप में ये मांगे नहीं मानेगी और देश की अर्थ व्यवस्था को बर्बाद नहीं होने देगी.

इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मोदी का रास्ता रोकने की कोशिश में आन्दोलन में जी जान लगा दें और मोदी स्वभाव के अनुसार आन्दोलन की आपदा में अवसर खोज कर कोई मास्टर स्ट्रोक लगा दें, जो कांग्रेस के टूटते गठबंधन और बिखरते कुनबे को पूरी तरह ध्वस्त कर दें. ऐसी स्थिति में आप और कांग्रेस दोनों का बहुत नुकशान होगा. आन्दोलनकारी कथित किसान भी ये जानते हैं कि आयेगा तो मोदी ही इसलिए आन्दोलन न तो बहुत उग्र होगा और न ही लंबा खिंचेगा .

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~शिव मिश्रा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

इस सम्बन्ध में मेरा एक लेख आज ही प्रकाशित हुआ है .